बारिश की नासमझी देखो
भिगो गयी हर भीगा कोना
जो सूखा था, वो सूखा है
न आंसू न कोई रोना
रेशे उसके सख्त हो गए
जो था पहले नर्म बिछौना
झूठ किसी ने बोला ऐसा
सच का कद लगता है बौना
जो देखा करते थे पहले
झिलमिल रातें, ख्वाब सलोना
आंखे उनकी भूल गयी है
किसको कहती थी वो सोना
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uttam rachana
ReplyDeleteWaah ...
ReplyDeletehamara koi blog dekha hai aapne kabhi ?
Waah... bahut hi achha likha hai aapne.. :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भीगी-भीगी सी रचना.....
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबारिश की नासमझी अच्छी लगी.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,रंजना जी.
खूबसूरत रचना ..
ReplyDeleteझूठ किसी ने बोला ऐसा
ReplyDeleteसच का कद लगता है बौना
प्रभावित करती रचना .....
बेहतरीन भाव संयोजन ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteखूबसूरत रचना !
रेशे उसके सख्त हो गए
ReplyDeleteजो था पहले नर्म बिछौना
Bahut khoob ... ye jeevan bhi to baarish ki tarah hai ... kabhji narm kabhi sakht ..
Beautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.
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