चीनी में चाय की तरह
लम्हा लम्हा घुलता वक़्त
कंधे पर उठाये
न जाने
कितनी यादों का बोझ
चलता रहता है लगातार
और छांटता बीनता रहता है
अच्छे बुरे लम्हों को
कभी करता है कुछ बोझ हल्का
तो कभी बटोर लेता है
कुछ और नर्म मीठी यादें अपने झोले में
और यूँ ही चलते फिरते
एक दिन
गुज़र जाता है वक़्त
फिर पलट कर
वापस न आने के लिए
सन्नाटे को सुनने की कोशिश करती हूँ...
रोज़ नया कुछ बुनने की कोशिश करती हूँ...
नहीं गिला मुझको की मेरे पंख नहीं है....
सपनो में ही उड़ने की कोशिश करती हूँ.