Saturday, November 14, 2009

गुमशुदा सी ज़िन्दगी में तयशुदा कुछ भी नहीं,
कुछ नहीं खुद का मगर खुद से जुदा कुछ भी नहीं,
देख कर गैरों के गम जब दर्द से दिल रो उठे...
बस यही तो है खुदाई और खुदा कुछ भी नहीं .
मरने की ख्वाहिशों में जीने लगे है हम…
जख्मों को चुपके चुपके सीने लगे है हम…
जब थक गए हम खुद के अश्कों को पोछकर…
गैरों के अश्क अब तो पीने लगे है हम.

Tuesday, November 10, 2009

तुम्हारे क़दमों की आहट
तलाशती फिर रही हूँ
बदल चुके मौसम में भी...
तलाश रही हूँ तुम्हारी खुशबु को।

की शायद ओस की किसी बूँद में
रेत पर ओंधे मुह पड़ी हुई पत्तियों के नीचे
वोगंवेलिया के उस झुरमुट के पीछे
या फिर ठण्ड से बचने की कोशिश में...
जलाई गयी टहनियों की उस गुनगुनी राख में

बची रह गयी हो तुम्हारी कोई चाह
कोई आह...
कोई एहसास
कोई आहट
कुछ तो हो...
जो तुम्हारे यहाँ होने का एहसास दिला जाए
और मै उस एहसास के सहारे
फिर से जी लूँ कुछ पल तुम्हारे साथ
क्योंकि तुम्हारे न होने पर भी
जीती तो हूँ तुम्हे
शायद उनसे ज्यादा जो है आसपास.