Friday, December 30, 2011

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...:)


जो बीत गया, वो गुज़र गया
था अच्छा या फिर बुरा सही
अब दूध नहीं बन पायेगा
जो जमकर के बन चुका दही

तो भी गम क्या है बहुत जतन
मथ डालो बन जाये मक्खन
फिर तपा इसे घी निकलेगा
हर मेहनत का फल निकलेगा

जो आज बहुत है सस्ता सा
उम्मीद से मंहगा निकलेगा
मेहनत की मिट्टी में बो दो
लोहा भी कुंदन निकलेगा

Tuesday, December 27, 2011

पुराने दर्द

कई बार उभर आते हैं पुराने दर्द
और हम भूल जाते हैं
की ये चोट लगी कैसे थी
फिर कोई मिलता जुलता इत्तफाक
याद दिला देता है उस चोट की
और हम वही मरहम
बता देते हैं उसे
जिसने नयी नयी खायी है वो चोट
और इस तरह
हम न सही कोई और सही
बच जाता है
दर्द भरे लम्बे एहसासों से

Thursday, December 22, 2011

इस बार की ठण्ड


होठों के बीच से फिसलती भाप
ठन्डे गाल, और गुलाबी नाक
बता रही है इस बार की ठण्ड
वो सब करवा डालेगी
जो आपने खुद को
स्मार्ट दिखाने के चक्कर में
आज तक नहीं किया

मंकी केप से लेकर मोटी जेकेट तक
मोफलर से लेकर शाल तक
हथेलियों को जेब में दबाये
उन्हें गर्म रखने की नाकाम कोशिशों में
खुद को खुद में ही समेटते हुए
नज़रें टिक जाती है ढाबों पर
धुआं उगलती गर्म चाय पर

धूप के निकलते ही
निकल आती है चारपाईयां
घर के आँगन में
और शुरू हो जाती है पंचायत
धूप में ताम्बई हुई ताई और चाचियों के बीच
दीवारों पर रखी आचार की बोतलों से शुरू हुई
ये पंचायत हरे साग और लहसुन के फायदों,
आचार बनाने की विधियों से लेकर
मोहल्ले के हर घर की
जन्मकुंडली तैयार कर डालती हैं

और मै बगल में अपनी कुर्सी पर बैठी
सुनती हूँ उनकी चटर पटर
काटती हूँ साग, छीलती हूँ मटर
और मुस्कुरा कर सहमती देती हूँ
उनकी हर एक बात पर
और घर के अन्दर आते ही
बन जाती हूँ उनकी चटर पटर का विषय
और पड़ोस वाली चाची कहती हैं
देखो इतनी देर से बैठी थी
लेकिन कुछ बोली नहीं

Monday, December 19, 2011

खुशियाँ


खुशियाँ यूँ ही दस्तक नहीं देती
किसी के दरवाज़े पर
वो आती है
बहुत लम्बा सफ़र तय करके
चलते फिरते उठते बैठते
जाने पहचाने और अनजाने लोगो के बीच
कभी कभी हम बाँट आते है
थोड़ी सी ख़ुशी
कभी कभी जान बूझ कर
तो कभी अनजाने मे
और वो बांटी हुई ख़ुशी
जब निकलती है आपने सफ़र पर
तो पलट कर दस्तक ज़रूर देती है
ये बताने के लिए
जो बांटा है वो कभी न कभी
आपके हिस्से में आयेगा ज़रूर

Tuesday, December 6, 2011

ख्वाहिशों के बीज


कुछ दिन पहले बोये थे
कुछ सपनो के बीज
ख्वाहिशों की मिट्टी में...
उम्मीद की ओस से नाम हुई मिट्टी में
कोपलें भी फूटने लगी थी
पर आज की धूप शायद
कुछ ज्यादा ही तेज़ थी
मिट्टी की नमी के साथ साथ
कोपलों को भी सुखा गयी...
पर कोई बात नहीं
फिर उम्मीदें जागेंगी
फिर खाव्हिशों के बीज बोये जायेंगे
ओस का गिरना और धूप का आना भी
यूँ ही जारी रहेगा
लेकिन....
कभी तो धूप
ओस की नमी से हारेगी
और नन्ही कोपलें बाज़ी मारेंगी...:)

Saturday, December 3, 2011



तब्दील हो रही हैं शायद मेरी आंखे
चलते फिरते कैमरे में
दीवारों पर परछाइयों की आड़ी टेढ़ी रेखाएं
ढलते सूरज की सुनहरी धूप का पीलापन
पत्तों पर जमी हुई ओस
या हवा के थपेड़ों में लहराते पेड़
हर एक पल समेट लेना चाहती हूँ
ताकि लम्हे के गुज़र जाने के बाद भी
थमा सा रह जाये वो लम्हा कहीं
इस बार क्रिसमस पर संता क्लाउस
तुम मेरे पास ज़रूर आना
और देना मुझे मेरा गिफ्ट
एक डिजिटल एसएलआर
क्योंकि अब मेरा नन्हा सा डिजिटल केमरा
मेरी सोच की उड़ान के साथ दौड़ नहीं पाता
और पूरी मेहनत के बाद भी सुकून न मिले
ये मुझे नहीं भाता