बड़े दिनों से न जाने
कितना कुछ मन में छुपा हुआ था
था कोई तूफ़ान
न जाने कैसे अबतक रुका हुआ था
एक बहुत मज़बूत इमारत
धीरे धीरे दरक रही थी
आज मोम बन पिघल रही थी
मन में जो भी कसक रही थी
गहराई की सारी सीमा
भरते भरते आज भरी थी
मै जितनी मासूम थी दिल से
दुनिया उतनी सख्त कड़ी थी
सब कुछ सहा अकेले मैंने
दर्द भरे दिन - दुःख की रातें
फिर भी लोग चला करते हैं
कितनी साजिश, गहरी घातें
रो लेती हूँ सबसे छुप कर
लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
पन्ने हो जाते हैं गीले
बोझ दर्द का थोडा सा कम