Saturday, October 18, 2014

'माँ जल्दी घर आओ न'



'माँ जल्दी घर आओ न'

जब तुम मुस्कुराती हो
और चमकती है तुम्हारी जुगनू सी आंखे
मै बन जाती हूँ दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत

निकल आते है पंख मेरे कंधो पर
तुम्हे बैठा कर अपनी पीठ पर
मै घुमा लाती हूँ सात समुन्दर पार

मेरे घर पहुचते ही दौड़ पड़ती हो तुम मेरी ओर
और मै कहती हूँ रुको बेटी मुझे मुंह तो धोने दो
और तुम चल पड़ती हो मन्त्र मुग्ध सी मेरे पीछे

ऑफिस में जब रुकना पड़ता है
देर तक किसी मीटिंग के कारण
पांच बजे के बाद मुझे दीखता है
सिर्फ घर, तुम और तुम्हारे पापा
सुनाई देती है सिर्फ एक आवाज़
'माँ जल्दी घर आओ न'

जो गुज़रे साल जलाये थे पटाखे तुमने

उसमे कुछ शोर था, कुछ रौशनी धमाकों की

चलो इस बार बाँट आये ज़रा सी खुशियां


किसी गरीब को नौबत न आये फांको की


- रंजना डीन