Monday, April 26, 2010

दर्द

दर्द को जब भी दबाऊं तो छलक आता है
जख्म का ये मिजाज़ हमको नहीं भाता है
हम तो रखतें है छुपा कर कई परतों के तले
दाग दिल का न जाने कैसे उभर आता है

मैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
सहा चुप रह के हर एक जख्म, हर एक छाला
खिली दोपहर भी देती है अँधेरे मुझको
दिखता है चाँद भी कभी कभी मुझको काला

Sunday, April 25, 2010

वो लम्हें चूम कर हौले से छुपा रखें हैं
की किसी की बुरी नज़र कहीं न पड़ जाये
वो यूँ ही झांके शरारत से मेरी आँखों में
और हम देखकर उनको शर्म से गड़ जाये


ऑफिस के
वातानुकूलित कमरे में बैठ कर
खिडकियों के काले शीशों के बाहर
दिखाई देते लोग
पेड़, मकान, सड़क, मौसम
दिखते है कितने सुन्दर
लेकिन बिजली के चले जाने के
कुछ पलों बाद ही
महसूस होने लगती है
दूर से दिखाई देती
सुन्दरता का सच
पसीने से भीगते शरीर
तपती हुई छतें
पिघलती सड़कें
झुलसते पेड़
उबलता मौसम...
सच है जब तक
खुद को चोट न लगे
दर्द महसूस नहीं होता

Wednesday, April 21, 2010

बड़े तूफ़ान देखे हैं

बड़े तूफ़ान देखे हैं
अभी तक मैंने राहों में
कही लालच, कही छल
और कहीं नफरत निगाहों में

ख़ुशी की ओर जब भी
मैंने अपनी बांह फैलाई
सिमट आई न जाने
सिसकियाँ कितनी पनाहों में

वो जो ऊँगली उठाते रहते हैं
गैरों पे अक्सर ही
उन्ही के हाथ देखे हैं
सने मैंने गुनाहों में

की अब तो साँस लेने से भी
डर लगने लगा मुझको
सुना है ज़हर का गुब्बार
फैला है हवाओं में

जो तुमको दूर जाना है
चले जाओ जहाँ चाहो
तुम्हे मै ढून्ढ ही लूंगी
मेरे अश्कों में आहों में

मैंने देखा है मेरे सब्र को
तुम आजमाते हो
कभी मिल जाये न आंधी
तुम्हे ठंडी हवाओं में

न जाने इश्क क्यों इतना है तुमसे
कुछ भी हो जाये
मगर उठता है हर पल हाथ
बस तेरी दुआओं में

Thursday, April 15, 2010

आँख की खिड़की जो खोलो मन का फाटक कर दो बंद

तुमने देखा बस वही
जो आँखों के आगे दिखा
काश देखा होता तुमने
मन के पीछे क्या छुपा
स्नेह में डूबे हुए मीठे से पल
हमने जो सींचा था वो भीगा सा कल
दर्द का और प्यार का हर एक लम्हा
बन गया था गीत और मीठी ग़ज़ल
पर तुम्हे क्या तुम वही देखो
जो तुमको है पसंद
आँख की खिड़की जो खोलो
मन का फाटक कर दो बंद
मै भी करके बंद
सारी खिड़कियाँ, सब रौशनी
आंसुओ की स्याही से
लिख डालूं कुछ भावुक से छंद

Tuesday, April 13, 2010

सही वक़्त पर सही प्रतिक्रिया

मैंने देखा
घर से काफी दूर
बहुत तेज़ चमक के साथ
मिट्टी में कुछ झिलमिलता सा
पर बादल के टुकड़े
जैसे ही सूरज को ढकते
सब शांत हो जाता
और फिर बादल के हटते ही
फिर वही ज़ोरदार चमक
जैसे सूरज का कोई टुकड़ा
टूट कर गिर गया हो ज़मीन में
मुझसे रहा ही नहीं गया
सोचा जाकर देखूं
इस सूरज के छोटे टुकड़े को करीब से
पास जाकर देखा
एक चमकीली सी कागज़ की पन्नी
हवा के थपेड़ों से फडफडा रही थी
और उसपर पड़ती धूप की किरने
उसकी चमक को दसगुना बढा रही थी
किसी ने सही कहा है
सही वक़्त पर सही प्रतिक्रिया
किसी को कहा से कहाँ पहुंचा देती है

Saturday, April 10, 2010

चेहरे

थक गयी हूँ देखती हूँ रोज़
कुछ झूठे से चेहरे
लाख कोशिश करके भी दिखतें हैं
वो रूठे से चेहरे
चापलूसी का जिसे है ज्ञान
उस चेहरे की कीमत
जिसको बस है काम से ही काम
वो टूटे से चेहरे

Friday, April 9, 2010

हर एक बुत के आगे झुकाते रहे सर
वो दर हो हमारा, या किसी और का दर
शहर कोई भी हो, किसी का भी हो घर
क्या जाने खुदा मिल ही जाये कहीं पर

Friday, April 2, 2010

सुनते है वो रिश्ता अब टूटने वाला है!!!

फूल को मिटटी में डाल देने से...
क्या वो पनप उठता है अपने आप?
गीली लकड़ी ने...
क्या आग पकड़ी है कभी?
बारिश की बूंदों में भीगने का मज़ा...
क्या छत के नीचे खड़े होकर लिया जा सकता है?
बिना बंधन के रुकी है कोई रस्सी...
किसी सिरे से किसी सिरे तक?
तब क्यों रिश्ते की आंच को सुलगने से पहले ही...
कह दिया इसमें गर्माहट नहीं?
क्यों फूलों को पनपने से पहले कह दिया...
इसमें नर्माहट नहीं?
क्यों रिश्तों को तोडना...
जुड़े रहने से ज्यादा आसान है?
क्यों न झुकने की प्रवृत्ति पर...
इतना अभिमान है?
क्यों सात जन्मो के रिश्ते...
साथ माह में ही बासी होने लगते हैं?
क्यों सपनो को जीते हुए...
हम सच्चाइयों को खोने लगते हैं?
कभी सच की गहराई में गोते लगाओ...
खुद को उसकी जगह रखकर हर बात पर गौर फरमाओ,
रिश्तों का बनना बिगड़ना किसी एक के हाथ में नहीं...
अपने हिस्से की गलतियों को सोचो तब फैसला सुनाओ.