Friday, January 29, 2010

सूख गयी बारिश की बूंदे ...
आँख मेरी क्यों अबतक नम है ,
हंसी मेरी ढकती है घूँघट ...
जब चेहरा दिखलाता ग़म है .
ऐसा नहीं मेरे है ज्यादा ...
और बाकी सबके ग़म कम हैं ,
हाँ हम हंसकर जी लेते हैं ...
मान लिया हममे ये दम है .

Thursday, January 28, 2010

गजलों के मौसम

गजलों के मौसम हमने भी देखे है
ख्वाब गुलाबी से हमने भी देखे हैं
पर मौसम तो मौसम है बदलेगा ही
सावन और पतझड़ हमने भी देखे हैं

जब ठंडी ठंडी सी लगती थी गर्मी
जब चुभ जाती थी फूलों की भी नरमी
चाँद झांक खिड़की से करता बेशर्मी
वो रेशम से दिन हमने भी देखे हैं

जब पाया क्या खोया क्या दिखता न था
जब एक नाम ख्यालों से मिटता न था
उड़ते थे हम पैर कही टिकता न था
वो खुशबु से दिन हमने भी देखे हैं.

Tuesday, January 26, 2010

शहीद

अंग्रेजों को भगाने का कारण
क्या देश को आजाद कराना था?
या उनके हाथ से देश छीन कर...
दो टुकड़ों में बाँट कर खाना था?
दो टुकड़ों को बाँट कर नेता बना दिया,
शहीदों को देश का विजेता बना दिया.
जो बचे जीवित उन्हें मेडल थमा दिए
जिंदगी की गाड़ी चलाने के लिए
कुछ रुपयों के पैडल थमा दिए.
और वो रूपये भी इतने कम की ज़िन्दगी क्या...
मौत का बोझ भी नहीं उठा पाएंगे,
जितने में दो रोटियां जुटाना मुश्किल था...
उतने में वो कफ़न कहा से लायेंगे?

मैंने देखा है...

मैंने देखा है...
नाकाबिल लोगो को आगे बढ़ते हुए,
कभी रिश्तों तो कभी...
रिश्वत की सीढियां चढ़ते हुए.
यूँ आगे बढ़ते हुए...
न जाने वो कितनी को गिराते हैं,
किसी की प्रतिभा...
तो किसी का ईमान चुराते है.
इस छोटे से लाभ के पीछे की...
हानि कोई नहीं देखता
प्यास बुझ जाने के बाद...
पानी कोई नहीं देखता.
दुनिया बदल देने की ताकत रखने वाले...
घरों में बेरोजगार बैठे हैं,
बिना सींग वाले जानवर...
ऊँचे ओहदों पर ऐठे हैं.

आज़ादी का जशन मनाओ...

आज़ादी का जशन मनाओ...
पर क्या ये आज़ादी है?
साधन घटते जाते है,
बढती केवल आबादी है.

योजनाओ के नाम पे कितने...
सरकारी धन लूट रहे;
जिनको सख्त जरुरत है,
वो लम्हा लम्हा टूट रहे.

कमर तोड़ स्कूली खर्चे...
कोई कैसे पाए पार,
क्या अमीर ही होगा शिक्षित?
और गरीब सदा लाचार?

ऊँचे पद उनकी मुट्ठी में...
जिनके पास सिफारिश है,
मध्य वर्ग के हाथों में बस...
संघर्षों की बारिश है.

सरकारी ताने बाने में...
खटमल दीमक जैसे लोग,
जनता के हिस्से के हक का,
रोज़ लगते हैं ये भोग.

बहुत हो गया बदलो यारों...
अब रुकने का वक़्त नहीं,
कुछ भी नहीं बदल सकता,
गर आज का युवा सख्त नहीं.

Saturday, January 23, 2010

कदम-दर-कदम हम बढे जब भी आगे...
चिटकते गए बीती यादों के धागे,
समय ने न जाने कहा ला धकेला...
बहुत कुछ नहीं था जो हम सो के जागे.

पुरानी सड़क पर बहुत दूर भागे...
निकलते गए और लोगो से आगे...
मगर गौर से जब निगाहें गड़ाई..
नए से थे चेहरे, नए थे लबादे.

गुंधे एक दूजे में ख्वाहिश के धागे...
है कुछ ख्वाब जिंदा तो कुछ थे अभागे...
हमें बस खरे लोगों की ही है ख्वाहिश ..
हमें पाक लोगो की दौलत खुदा दे.

Sunday, January 17, 2010

कोहरे से भरा सवेरा है

कोहरे से भरा सवेरा है
हर शय पर धुंध का डेरा है
हर पत्ती सहमी सिमटी है
और ख़ामोशी का पहरा है

सांसो से धुआं निकलता है
अलाव सुबह से जलता है
गर्मी की चाहत लिए हुए
हर जिस्म ठण्ड से गलता है

सूरज तो ऐसा छुपा हुआ
न उगता है न ढलता है
सड़कों पर सोते लोगों में
एक घर का सपना पलता है

Wednesday, January 13, 2010

मै

मै पलभर की चकाचौध सी....
आसमान की कड़क कौंध सी,
बारिश की बूंदों संग बहती...
चुप चुप रह कर सबकुछ कहती.
कभी किताबों में उलझी सी...
कभी भ्रमित, कभी सुलझी सी.
कभी चटक चुलबुली खनक सी...
कभी शहद और कभी नमक सी.
ओस में भीगी हरियाली सी,
कभी भरी, कभी ख़ाली सी.
कभी उछ्ल कर चाँद पकडती...
मस्त, मगन और मतवाली सी.
कभी जूझती कंप्यूटर पर...
व्यस्त, घमंडी अधिकारी सी.
कभी डालती सिर पर पल्लू ,
भोली, सुघड़, सरल नारी सी.
मेरी कुछ बातें क्यों अक्सर....
कुछ की कुछ हो जाती है?
कहती हूँ कुछ और...
समझ में लोगो के कुछ आती हैं.

नहीं रंग रोगन से....
रंगना आता मुझको बातों को..
हो जाता नाराज़ कोई तो...
नींद न आती रातों को.

सोच रही हूँ अब बातों को...
न बोलूं न खोलूंगी,
फिर कोई नाराज़ न होगा...
मै सुकून से सो लूगी.

Sunday, January 10, 2010

दुनिया की गडित मेरे पल्ले नहीं पड़ती...

दुनिया की गडित मेरे पल्ले नहीं पड़ती,
मै फायदा देख कर आगे नहीं बढती.
मुझे नहीं पसंद गोरे चेहरे और काले दिल वालों की चमचागिरी,
मुझे तो लगती है भली हर वो बात जो है सोने सी खरी.
मुझे कपड़ों और गहनों से ज्यादा लम्हों की खूबसूरती भाती है,
मुझे पसंद है वो खुशबु जो मंदिर में धूप जलाने से आती है.
बातों को बढ़ा चढ़ा कर बोलना मुझे नहीं आता,
मै नहीं खोल सकती बात बात पर झूठ का खाता.
मेरे मंदिर में अल्ला, राम, खुदा सालों से साथ साथ रहते हैं,
फिर लोग क्यों ज़मीन बाटो, देश बाटो कहते है?
मुझे कभी नहीं लुभा पाता कीमती कपड़ों में दमकता रूप,
मुझे भाती है खुले दिमाग की गुनगुनी धूप.
मै कोई संत नहीं जिसमे मोह नहीं माया नहीं,
लेकिन मै जो हूँ वो हूँ, खुद को छुपाना मुझे आया नहीं।

मै अक्सर देखती हूँ छोटे छोटे फायदों के लिए पलते षड्यंत्र,
कब सीखेगे लोग जीवन जीने का असली मन्त्र?

टूट कर गिरना एकदिन
है ये तारों को पता
ये तो बस किस्मत है उनकी
है नहीं उनको खता
झिलमिलाना काम है
सो झिलमिलातें है सदा
आसमां को, बादलों को
प्यार देते है जता
काश हम भी सीख
उनसे कुछ ऐसी अदा
भूलकर सारे अँधेरे
देते दुनिया जगमगा

Saturday, January 9, 2010

आपके जाने के बाद

आपके जाने के बाद
ऐसे कितने लम्हे आये
जब लगा काश आप साथ होते
शायद आप ख़ुशी से नाच उठते
फक्र से सर उठाते
और सबको ख़ुशी का राज़ बताते

आपके जाने के बाद
कितनी रातें आपकी यादें
और मेरे आंसू संग बहे
और जिंदगी छुप गयी न जाने किस कोने में
की ढूँढने पर भी नहीं मिलती

आपके जाने के बाद
लगा छत छीन ली किसी ने
सबसे कीमती चीज़ चुरा ले गया कोई
और बदले में दे गया
ढेर सरे आंसुओ की सौगात

आपके जाने के बाद
मुझे एहसास हुआ
आपसे ज्यादा प्यार मुझे किसी ने नहीं किया
मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कोई नहीं था
क्योंकि मुझे आपका साथ मिला था

आपके जाने के बाद
जब आपको ज़मीन पर लिटाया गया
तब मै आपका बाया हाथ पकड़ कर
पूरे वक़्त बैठी रही
की शायद आप पहले की तरह कहो
रंजू जरा हाथ पकड़ कर बैठा दो

आपके जाने के बाद
मै सोच रही हूँ
आपका खून मेरी रगों में दौड़ रहा है
आपका प्यार मेरे ज़हन में बसा है
मेरा शरीर आपकी देन है
मेरी आँखों में आपका चेहरा है
फिर आप क्यों नहीं हो

पापा आपके बिना
आपकी ये बेटी अकेली रह गयी
इतने सालो से मैंने किसी को पापा नहीं कहा
आज पता चलता है की पापा शब्द कितना प्यारा है.

आपके जाने के बाद
एक दिन मै उस हस्पताल में गयी
जहाँ कभी आपका इलाज हुआ था
उस वार्ड के उस बेड तक गयी
जहा आप लेते या बैठे मिलते थे

और सोचती रही
काश आप यूँ ही मिलते बैठे हुए
और मै जल्दी से आपका हाथ पकड़कर
आपको घर ले आती

Wednesday, January 6, 2010

न जाने क्यों

न जाने क्यों
हर वो चीज मुझे अपनी सी लगती है
जिसमे बनावट नहीं

न जाने क्यों
हर वो सोच खुदा सी लगती है
जिसमे गिरावट नहीं

न जाने क्यों
हर भोली औरत में
मुझे माँ नजर आती है

न जाने क्यों
मासूम बच्चो की
भोली आँखों पर नज़र ठहर जाती है

न जाने क्यों
हर बुजुर्ग में
पापा की झलक मिलती है

न जाने क्यों
हर मिट्टी में मुझे
एक सी महक मिलती है

न जाने क्यों
हर अच्छा इंसान
जाना पहचाना लगता है

न जाने क्यों
हर बनावती रिश्ता
बेगाना लगता है

न जाने क्यों
मै किसी की आँख से अश्क बनकर
टपकना नहीं चाहती

न जाने क्यों
मै दुनिया की चकाचौंध में
बदलना नहीं चाहती

संस्मरण

रात्रि : २:३०, दिनाक : १८/०५/९५
आज मै अपनी लिखी एक कविता खोज रही थी, जिसे एक पन्ने पर लिखकर मैंने न जाने कहा रख दिया था. तभी अचानक ढूँढ़ते ढूँढ़ते मेरे हाथ एक किताब लगी जो कम से कम ४० वर्ष पुरानी थी और उसे मेरे नाना जी पढ़ा करते थे. मै उस किताब को खोल कर उसके पन्ने पलटने लगी की तभी अचानक उसमे एक एक कागज़ का टुकड़ा निकला, वो किसी डाक्टर का लिखा पर्चा था जिस पर शम्भू देवी लिखा हुआ था, शम्भू देवी मेरी स्वर्गीय नानी जी का नाम है. उस पर तारिख भी पड़ी हुई थी १४/१२/६५, मेरे जनम के ११ वर्ष पहले की. न जाने क्यों मन भावुक हो उठा. मै सोचने लगी इस किताब को नाना जी ने किनी बार छुआ होगा, इसके अधिकांश पन्नो पर उनके हाथों का स्पर्श अंकित हुआ होगा, उनकी अनुभवी आँखों ने कितनी बार इसके शब्दों को निहारा होगा? ये सोच कर बड़े स्नेह के साथ मै उस किताब को सहलाने लगी मानो वो स्पर्श उन कागजों का नहीं वरन नाना जी के हाथों का हो. नानी के नाम लिखे पर्चे को हाथ में लेकर मै सोचने लगी आज नाना और नानी जी दोनों ही इस दुनिया में नहीं, लकिन उनका स्पर्श, उनकी यादें, उनकी बातें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अब भी जीवित हैं. आज मै उन्हें याद कर रही हूँ जो अब नहीं हैं, एक समय ऐसा भी आयेगा जब मै नहीं होउगी. बचेगी कुछ डायरियां, पुराने एल्बम, कुछ मीठी कुछ कडुई यादें , थोडा सा स्नेह जो अनजाने में इधर उधर बंट गया होगा. जीवन की परिभाषा जो जनम से मृत्यु तक की परिधि में कैद है. इसकी जानकारी सभी को है. इससे बड़ा सच कोई नहीं. फिर भी इसका अंतिम पड़ाव आँखों को आंसू और ह्रदय को पीड़ा क्यों दे जाता है?

Tuesday, January 5, 2010

ठिठुरता दिन

कडकती ठण्ड में...
थरथराती सांसे लिए...
ठण्ड से बचने के लिए...
खुद को खुद में छुपाने की कोशिश करती हुई,
आना ही पड़ा ऑफिस।

काश कुछ छुट्टियाँ और मिल जाती...
और थोडा वक़्त और बिता लेती घर पर.
परिवार के साथ रजाई में बैठकर...
गर्म चाय की चुस्कियां लेते हुए...
छुट्टियाँ बिताने से अच्छा क्या हो सकता है।

लेकिन हाय ये प्राइवेट नौकरी,
जान जाये पर काम न जाये।

आज एक सहकर्मी बोला...
कोई आज बहुत प्रशंशा कर रहा था हमारे विभाग की,
लेकिन निदेशक कुछ नहीं बोले...
मै मुस्कुरा कर बोली...
समझदार बोस वही होता है,
जो पेड़ पर उगते फल नहीं गिनता...
लेकिन हर टूटते पत्ते का हिसाब रखता है।

सभी सहकर्मी मुस्कुरा दिए...
फिर लग गए सब अपने अपने काम में,
ऑफिस की वही डिप डिप चाय की चुस्कियां लेते हुए।

सहसा देखा एक सहकर्मी ने...
सबके लिए कही से अदरक वाली चाय मंगाई,
सब के सब खुश हो उठे...
वाह बहुत बढ़िया किया ये.
मै बोली ऐसा लगा रहा है जैसे किसी ने...
कुछ गरीब लोगो को कम्बल बाँट दिए हो...
ठण्ड से बचने के लिए।

और ज़ोरदार ठहाकों के साथ...
फिर से ऑफिस में...
एक ठिठुरता दिन ख़तम.

Sunday, January 3, 2010

कितनी उलझन और बवाल

कितनी उलझन और बवाल
एक ख़तम तो नया सवाल.
नए साल पर मांग उधारी
मचा रहे है लोग धमाल

महगाई की झेलो मार
मचा हुआ है हाहाकार.
जेब हुई जाती है हल्की
और खर्चे है अपरम्पार

इंसानों का लगा बाज़ार
रिश्तों में चलता व्यापार
घटिया से नोवेल के सारे
लगते है घटिया किरदार .

टूटी चप्पल जोड़ रहे
नाते रिश्ते तोड़ रहे
अपने दुःख की नहीं खबर
गैर के सुख पे आँख धरे

पैसों की मारा मारी
इसे भरा तो वो खाली
फूल पौध से काम चले न
नोट उगाओ ओ माली

Friday, January 1, 2010

मै कवि, मै कलाकार...

मै कवि, मै कलाकार...
सपनो की दुनिया से गहरा सरोकार.
जब असली दुनिया से भर जाता दिल
सज जाती है सपनो की महफ़िल.
चाँद से होती है गुफ्तगू..
बादलों पर बैठ कर हो जाती हूँ उड़न छु
हवा के संग हिलते हुए फूलों पर डोलती हूँ ...
नर्म हरे पत्तों की चुनरिया ओढती हूँ...
ओस की मोतियों के जब पहनती हूँ जेवर,
किसी राजकुमारी से कम नहीं होते तब मेरे तेवर.
चाँद से तो मेरा है बरसों का याराना ...
मेरे हर राज़ का है उसके पास खज़ाना .
घास पर टूटी पड़ी पत्तियों के नीचे
मै अक्सर अपनी आँखों को मीचे
करती हूँ गुनगुनी धुप में आराम
पूछना कभी उनको याद है अभी भी मेरा नाम
आसमान पर बैठ कर देखती हूँ पूरी दुनिया
वो बूढी सी दादी, वो नन्ही सी मुनिया
वो छोटा मोनू जिसके लिए हर वो चीज़ लड्डू है जो गोल है
वो संजू किसके लिए प्यार सबसे अनमोल है.
मेरे लिए उतना है आसान आसमान के तारें तोडना...
जितना ज़मीन पर बैठ कर अपनी टूटी चप्पल जोड़ना.
ये सपनो की दुनिया देती है तनाव से आराम..
और आसान हो जाते है कुछ मुश्किल से काम.