Thursday, April 21, 2011















जितनी ऑंखें देखी सब एक जैसी थी
नम, मायूस, उदास, थकी सी, जागी सी
मैंने झाँका जब भी औरत के अन्दर
ऊपर से कुछ, अन्दर बड़ी अभागी सी

Tuesday, April 12, 2011

कुछ सूनापन कुछ सन्नाटा
मन ने नहीं किसी से बाँटा
दर्द न जाने क्यों होता है
दीखता नहीं मुझे वो काँटा।

गुमसुम-सी खिड़की पर बैठी
आते जाते देखूँ सबको
अपने से सारे लगते हैं
तुम बोलो पूजूँ किस रब को।

पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो तो
यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।

नहीं लोग अपने से लगते
नहीं किसी से कह सकते सब
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कब?

दौड़ में ख़ुद की जीत की ख़ातिर
कितने सर क़दमों के नीचे
हुनर कोई भी काम न आया
सारे दबे नोट के नीचे।

मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै चिटके बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ

http://kavita।hindyugm.com/2010/05/main-toote-bartan-ke-jaisi.html