Sunday, August 29, 2010

आओ....थाम लें फिर से हथेलिया


आओ....
थाम लें फिर से हथेलिया
सारे दोस्त, सारी सहेलियां
लौट पड़े बचपन की और
भूल कर आज की पहेलियाँ

मिट्टी में बनायें कुछ घरौदे
खेले सिकड़ी और छुपा छुपाई
वो खट्टे मीठे चूरन
वो धूप में पड़ी चारपाई

वो मोर्निंग वाक पर जाने के लिए
गेट से कूद कर दोस्त को जगाना
झूठे भूत के किस्से सुना कर
रोब जमाना, सबको डरना

वानर सेना बनाकर
पूरी कालोनी में चक्कर लगाना
दीदी को साईकिल सिखाने में
खुद भी गिरना, उनको भी गिरना

यादें वैसी ही है ताज़ा
जैसी सुबह की ओस
पर बदल गए है वो एहसास
वो जज्बा, वो जोश

अब मन की तस्वीर
स्वार्थ से लेमिनेटेड है
बिना काम के किसी से मिलना
फैशन आउट डेटेड है

Monday, August 23, 2010

बहुएं



कंगन खनकाती

पल्लू संभालती

पायल की रुनझुन से

ताल मिलाती


बटोर लाती हैं

ढेर सारे सपने

पीछे छोड़ आती हैं

सारे अपने


ढूँढती है स्वर्ग

अनजाने से घर में

खोज लेती हैं

ईश्वर अपने वर में

Tuesday, August 17, 2010

सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,


सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,

हसरतों की हदों पर न कब्ज़ा हुआ....


कब ज़मीन पूछती है कहाँ से हो तुम?

जब किसी बूँद ने उसके तन को छुआ।


क्या कभी धूप को खुरदुरे फर्श पर...

कोई पौधा सवालों का बोते सुना?


क्या कभी ओस ने पूछ मज़हब शहर,

वादियों के किसी ख़ास गुल को चुना?


क्या कभी चाँद तारों ने अपनी चमक

बांटते वक़्त सोचा यहाँ या वहां?


फिर क्यों हम बांटते? फिर क्यों हम काटते?
लेके जाएगी ये सोच हमको कहाँ?

Friday, August 13, 2010

जिंदगी तू मुस्कुराये बस यही एक चाह थी



यूँ बदलते देखे मैंने रंग हरपल नित नए
रोते रोते यूँ कोई कैसे लगाये कहकहे


जिंदगी को थामने की अजमाइश की बहुत
पर मेरे अरमान के घर रेत के जैसे ढहे


मेरे होठों की दरारे दिन -ब-दिन गहरी हुई
आँखों से न जाने कितने अश्क के दरिया बहे


जिंदगी तू मुस्कुराये बस यही एक चाह थी
बस इसी चाहत में खुद पर फातिये हमने पढ़े

Saturday, August 7, 2010

अब नयी एक इमारत बनायेगे हम








क्यों सहूँ , क्यों रहूँ दर्दो गम के तले
क्यों रहे यूँ नमी मेरी पलकों तले
क्यों मै सिलती रहू चिंदिया हर घडी
जब पता है, है रिश्ते के धागे गले

क्यों देखू मै ख्वाबों का बिखरा लहू
क्यों डरूं जब कोई चाह दिल में पले
क्यों चुभे मुझको रोशन सा दिन आजकल
क्यों मिलती है राहत अंधेरों तले

क्यों पुकारूँ वही नाम हर हाल में
जिनके कानो में रुई के फाहे पड़े
अब नयी एक इमारत बनायेगे हम
हम क्यों खोदे पुराने वो मुर्दे गड़े


(घरेलू हिंसा की त्रासदी सहती हुई हर नारी को समर्पित)