सुबह उठते ही बुहार कर
एक जगह इकट्ठा करती हूँ तिनके
थोडा पानी भी छिड़क देती हूँ
की नमी से शायद थमी रहे कुछ पल
पर उफ़ ये बवंडर
इन्हें हमेशा मेरा आँगन ही क्यों दिखता है
क्यों घूम फिर कर यही आ जाते हैं
और दिन भर की थकी मै
फिर से लग जाती हूँ अपने काम पर
फिर से वही बिखरना, वही समेटना
पर जबतक सांस है आस भी है
ReplyDeleteबवंडर सबके आँगन में आते हैं....हम अपनी चारदीवारी के बाहर कहाँ देखते हैं.....
यही जिंदगी है...
अनु
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्तिबेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
ReplyDeleteबहुत गहन भाव
ReplyDeletebahut khub....sundar bhaw!
ReplyDeleteफिर से लग जाती हूँ अपने काम पर
ReplyDeleteफिर से वही बिखरना, वही समेटना
मार्मिक अभिव्यक्ति..!
बाह, एक दम सही .
ReplyDeleteफिर से लग जाती हूँ अपने काम पर
फिर से वही बिखरना, वही समेटना