Sunday, April 7, 2013

सोचती हूँ डूब मरुँ गोमती में 
बहुत देख ली जिंदगी
वही सुबह वही शाम 
वही रोज़ के तमाम काम  
फिर सोचती हूँ गोमती ही क्यों?
डूबने के लिए जगहों की कमी है क्या?

क्यों न डूब जाऊं बेटी की मासूम आँखों में 
जन्नत उससे ज्यादा अच्छी और कहा मिलेगी?
क्यों न डूब जाऊं उस हर अधूरे काम को पूरा करने में 
जो न जाने कबसे मन की पिटारी में 
छोटी छोटी चिट्स की तरह इकट्ठा होते रहे आजतक 

या डूब जाऊं वो सारे शौक पूरे करने में 
जो जब तब कुलांचे मारते रहते हैं मन के मैदान में 
कैमरा कंधे पर टांग कर निकल पडू 
अनछुई सी प्रकृति को महसूस करने 
जिनके न जाने कितने संयोजन 
मन ही मन उकेर चुकी हूँ 
लिख डालूं एक काव्य संग्रह 
कोई छोटा सा उपन्यास 
या फिर कुछ पेंटिंग्स 

या फिर डूब जाऊं और डुबा दूँ 
स्नेह के सागर में सलोने सजन को 
फिर पहले से डूबे हुए लोगो को 
कही और डूबने की ज़रूरत कहाँ?

7 comments:

  1. डूब कर क्या होगा, जब आपकी अभिव्यक्ति इतनी अच्छी है तो निश्चित ही कुलांचे मारते रहते मन के मैदान में ही कूच करना चाहिए ..
    शुभकामनाएं !

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  2. Madhuresh ji...doobne ki baat sirf mazak hai, hum to wo hain jo na khud doobenge na doosron ko doobne denge...:)....apki shubkamnaon ke liye dhanywaad...:)

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  3. पहला विचार छोड़ कर शेष सभी बहुत बढ़िया हैं आपके
    औरों को भी को सुख और संतोष देंगे !

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  4. beti ki masoom ankhon mein doobne ka vichar toh bohat hi pyara hai.. nice and sweet composition...
    regards

    please visit my blog http://boseaparna.blogspot.in/

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  5. गोमती के अलावा सभी जगहें ठीक हैं डूबने के लिए ...
    सबमें प्रेम की खुशबू है ...

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