Tuesday, August 7, 2012

मै सबके साथ होकर भी
अकेली हूँ न जाने क्यों?
कभी सुलझी
कभी उलझी पहेली हूँ न जाने क्यों?
बड़ी हिम्मत से मै हर रोज़
खुद को जोड़ लेती हूँ मगर
फिर भी मेरी आंखे पनीली हैं न जाने क्यों
हर एक रिश्ते को
सींचा है बड़ी शिद्दत मुहब्बत से
मगर खुद एक खाली सी हथेली हूँ न जाने क्यों
चुरा कर काश ले जाये
मेरा हर गम कोई आकर
कभी चट्टान थी
अब रेत की ढेरी हूँ, जाने क्यों?

5 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत रचना!
    हर ख़त्म होती शब्दों की पंक्ति सोच की पंक्ति शुरू कर रही है!

    कुँवर जी,

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  2. वाह रंजना जी लाजवाब रचना , बहुत-२ बधाई

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  3. बहुत अच्छा ब्लाग। जहां एक खास रिदम में शब्द नए अर्थ गढ़ते हुए नजर आते हैं। बधाई और शुभकामनाएं

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