Wednesday, January 6, 2010

न जाने क्यों

न जाने क्यों
हर वो चीज मुझे अपनी सी लगती है
जिसमे बनावट नहीं

न जाने क्यों
हर वो सोच खुदा सी लगती है
जिसमे गिरावट नहीं

न जाने क्यों
हर भोली औरत में
मुझे माँ नजर आती है

न जाने क्यों
मासूम बच्चो की
भोली आँखों पर नज़र ठहर जाती है

न जाने क्यों
हर बुजुर्ग में
पापा की झलक मिलती है

न जाने क्यों
हर मिट्टी में मुझे
एक सी महक मिलती है

न जाने क्यों
हर अच्छा इंसान
जाना पहचाना लगता है

न जाने क्यों
हर बनावती रिश्ता
बेगाना लगता है

न जाने क्यों
मै किसी की आँख से अश्क बनकर
टपकना नहीं चाहती

न जाने क्यों
मै दुनिया की चकाचौंध में
बदलना नहीं चाहती

6 comments:

  1. न जाने क्यों
    मै दुनिया की चकाचौंध में
    बदलना नहीं चाहती

    --बहुत सही..लोग दुनिया की चकाचौंध में खुद को गुमा देते है..उम्दा रचना.

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  2. बनावट और गिरावट से दूर ही तो जिंदगी का लुत्फ़ है ...
    दुनिया की चकाचौंध से बदलना नहीं चाहती ..
    शुभ विचार ...अच्छी कविता
    दुनियादारी आपको बदल नहीं पाए ...शुभकामनायें ...!!

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  3. बहुत अच्छी बात है बनावट से दूर ही रहना चाहिये शुभकामनायें

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  4. न जाने क्यों
    मै दुनिया की चकाचौंध में
    बदलना नहीं चाहती ...

    इंसान वही है जो वक़्त की आँधी में विचलित न हो ......... सुंदर रचना है ............

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  5. अच्छी रचना है.शुभकामनायें.

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  6. bahut khoob bahut dino baad ek dil ko chooti hui rachna padhi use bhi badi baat ye knowledge dikhane ki koshish nahi ki gayi................

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