Wednesday, January 6, 2010

संस्मरण

रात्रि : २:३०, दिनाक : १८/०५/९५
आज मै अपनी लिखी एक कविता खोज रही थी, जिसे एक पन्ने पर लिखकर मैंने न जाने कहा रख दिया था. तभी अचानक ढूँढ़ते ढूँढ़ते मेरे हाथ एक किताब लगी जो कम से कम ४० वर्ष पुरानी थी और उसे मेरे नाना जी पढ़ा करते थे. मै उस किताब को खोल कर उसके पन्ने पलटने लगी की तभी अचानक उसमे एक एक कागज़ का टुकड़ा निकला, वो किसी डाक्टर का लिखा पर्चा था जिस पर शम्भू देवी लिखा हुआ था, शम्भू देवी मेरी स्वर्गीय नानी जी का नाम है. उस पर तारिख भी पड़ी हुई थी १४/१२/६५, मेरे जनम के ११ वर्ष पहले की. न जाने क्यों मन भावुक हो उठा. मै सोचने लगी इस किताब को नाना जी ने किनी बार छुआ होगा, इसके अधिकांश पन्नो पर उनके हाथों का स्पर्श अंकित हुआ होगा, उनकी अनुभवी आँखों ने कितनी बार इसके शब्दों को निहारा होगा? ये सोच कर बड़े स्नेह के साथ मै उस किताब को सहलाने लगी मानो वो स्पर्श उन कागजों का नहीं वरन नाना जी के हाथों का हो. नानी के नाम लिखे पर्चे को हाथ में लेकर मै सोचने लगी आज नाना और नानी जी दोनों ही इस दुनिया में नहीं, लकिन उनका स्पर्श, उनकी यादें, उनकी बातें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अब भी जीवित हैं. आज मै उन्हें याद कर रही हूँ जो अब नहीं हैं, एक समय ऐसा भी आयेगा जब मै नहीं होउगी. बचेगी कुछ डायरियां, पुराने एल्बम, कुछ मीठी कुछ कडुई यादें , थोडा सा स्नेह जो अनजाने में इधर उधर बंट गया होगा. जीवन की परिभाषा जो जनम से मृत्यु तक की परिधि में कैद है. इसकी जानकारी सभी को है. इससे बड़ा सच कोई नहीं. फिर भी इसका अंतिम पड़ाव आँखों को आंसू और ह्रदय को पीड़ा क्यों दे जाता है?

2 comments:

  1. इसी का नाम तो जिन्दगी है.....बस यादे ही रह जाती है....आँसू और पीड़ा भी इसी जीवन का हिस्सा है.....जीवन मे किसी का अभाव अनुभव होने पर ही पीड़ा होती है....

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  2. इसी को जीवन कहते हैं ........... कुछ लम्हे दिल को छू जाते हैं ..........

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