Tuesday, January 26, 2010

आज़ादी का जशन मनाओ...

आज़ादी का जशन मनाओ...
पर क्या ये आज़ादी है?
साधन घटते जाते है,
बढती केवल आबादी है.

योजनाओ के नाम पे कितने...
सरकारी धन लूट रहे;
जिनको सख्त जरुरत है,
वो लम्हा लम्हा टूट रहे.

कमर तोड़ स्कूली खर्चे...
कोई कैसे पाए पार,
क्या अमीर ही होगा शिक्षित?
और गरीब सदा लाचार?

ऊँचे पद उनकी मुट्ठी में...
जिनके पास सिफारिश है,
मध्य वर्ग के हाथों में बस...
संघर्षों की बारिश है.

सरकारी ताने बाने में...
खटमल दीमक जैसे लोग,
जनता के हिस्से के हक का,
रोज़ लगते हैं ये भोग.

बहुत हो गया बदलो यारों...
अब रुकने का वक़्त नहीं,
कुछ भी नहीं बदल सकता,
गर आज का युवा सख्त नहीं.

2 comments:

  1. ऊँचे पद उनकी मुट्ठी में...
    जिनके पास सिफारिश है,
    मध्य वर्ग के हाथों में बस...
    संघर्षों की बारिश है....

    सच है पूर्ण आज़ादी तो नही है .......... पर ये आज़ादी फिर से संघर्ष कर के ही मिल सकती है .......... आपकी रक्श्चना सोचने को मजबूर करती है ................

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  2. आपकी ये कविता पढ़कर मुझे कैलाश गौतम की याद आ गयी ,बेहद उम्दा रचना और सामयिक भी

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