महसूस करना कभी कभी शाम कितनी खूबसूरत लगती है
जब ढलते हुए सूरज की सुनहरी रौशनी
दरवाजों से झांकते हुए फर्श पर बिखरती है.
हाथ में गर्म चाय का प्याला लिए हुए
आसमान की और देखना
न जाने कितने परिंदों के झुण्ड अपने घोसलों को लौटते है
मस्जिदों की अज़ान और मंदिरों के घंटे न जाने कैसी कशिश पैदा करते है
इन सबके बीच याद आते है वो दिन...
जब पापा ऑफिस से आते थे,
माँ बड़े करीने से तैयार होती थी
अपने लम्बे बालों की चोटी बनाती माथे पर कुमकुम लगाती
और कंघी की नोक से सिन्दूर की एक पतली सी रेखा अपनी मांग में भरती
और मै बड़े ध्यान से उन्हें ऐसा करते देखती
और सोचती रह जाती
ये माँ है या परी
मुझे बड़ा अच्छा लगता जब माँ करवाचौथ पर
शादी की पीली सितारों वाली साडी पहनती थी
पैरों में आलता लगाती और पूजा की थाल लेकर मंदिर जाती
शाम को पापा जब ऑफिस से आते, हाथों में ताज़ी दातुन , फलों का थैला
और कभी कभी एक बड़ा सा तरबूज साथ लाते
जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठ कर खाता था
अब न वो दिन है न पापा, लेकिन फिर भी शाम तो है
जो हर रोज़ आती है,
नित नयी कहानी कहने.
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बहुत सुन्दर रचना...भावुक करती!!
ReplyDeleteउम्दा भाव!
वाह ! एक कालखंड का शब्द चित्र बन उभरती कविता -नोस्टाल्जिया भी और समकालिक बोध भी !
ReplyDeleteवक़्त कहाँ रुकता है ! अतीत का स्मरण-राग सदैव ही मुग्ध करता है ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रविष्टि । आभार ।
भाव पूर्ण, बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव पूर्ण रचना है।
ReplyDeletewow! what a deep meaning!
ReplyDeletenice. really touchy!
बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत -२ आभार
अब न वो दिन है न पापा, लेकिन फिर भी शाम तो है
ReplyDeleteजो हर रोज़ आती है,
नित नयी कहानी कहने ....
समय कभी किसी के लिए रुकता नही है ........ ऐसे ही शाम भी रोज़ आती है ...... हां कभी कभी किसी की याद कोने में टिमटिमाती रहती है ......
यादें
ReplyDeleteकविता का रास्ता छेंककर खड़ी हो जाती है
अक्सर यादें
कविता से बड़ी हो जाती हैं |
ये कविता नहीं उससे बढ़कर है ये रंजना की याद है सुन्दर याद
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteZindgi ke safar me gujar jaate hai jo mukam, vo phir nahi aate...
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