Tuesday, December 29, 2009

उड़ान

तुमने पंख दिए और कहा उड़ो वहां तक
जहाँ पंहुच कर कोई छोर न दिखे
जहाँ पंहुच कर अंत का भी अंत हो जाये

मै उड़ी...
उस ऊंचाई को देख पहले हिचकिचाई
फिर उड़ चली इस विश्वास के साथ
की तुम साथ हो

जब डगमगाई संभाला तुमने
फिर एक दिन तुम डगमगाए
या शायद तुम डगमगाए नहीं
वो तुम्हारा उड़ने का तरीका था

और तुम्हे उस डगमगाहट से सँभालने में
मै भी डगमगा गयी
इतनी ऊंचाई पर पहुँच कर डगमगाने से
शरमाई, घबरायी सी मै
तुमसे नज़र मिलाने से कतराती हुई
उड़ चली दूर

और बैठ कर एक पेड़ की ओट में सोचने लगी
मै क्यों भागी तुमसे नज़रें चुराती हुई?
तुम तो सब जानते थे
मेरी उड़ान, मेरी थकान के बारे में

फिर मेरा डर मेरी घबराहट तुम्हे समझ क्यों नहीं आई?
क्यों तुमने कहा...
ठीक है बैठी रहो उस पेड़ की ओट में
अगर तुम डरती हो डगमगाने से

साथी होने के नाते
कोई ऐसा रास्ता भी तो बता सकते थे
जिसपर चलते हुए मुझे डगमगाना न पड़े

लेकिन अब उस डगमगाहट ने सिखा दिया मुझे
लड़खड़ा कर संभालना
बिना डर के उड़ना

अब मेरी उड़ान तुमसे ऊपर है
और मै जानती हु जब तुम ऊपर देखते हो
तो शर्मिंदा से सोचते हो
इतनी जल्दी क्यों की तुमने निर्णय लेने में.

लेकिन पछताओ मत
मै आज भी तुम्हारे साथ हूँ
तुम्हारी उड़ान और डगमगाहट में
क्यों की मेरी आदत है ज़मीन की और देखते हुए चलना
इसलिए नहीं की उड़ने से ज्यादा मुझे चलना पसंद है
बल्कि इसलिए की नीचे देखने पर तुम दिखाई देते हो.

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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  2. लेकिन अब उस डगमगाहट ने सिखा दिया मुझे
    लड़खड़ा कर संभालना
    बिना डर के उड़ना

    बहुत खूबसूरत लाइन..

    रस्ते बड़े कठिन हैं
    चलना संभल-संभल के..

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  3. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!!

    लेकिन पछताओ मत
    मै आज भी तुम्हारे साथ हूँ
    तुम्हारी उड़ान और डगमगाहट में
    क्यों की मेरी आदत है ज़मीन की और देखते हुए चलना
    इसलिए नहीं की उड़ने से ज्यादा मुझे चलना पसंद है
    बल्कि इसलिए की नीचे देखने पर तुम दिखाई देते हो.


    वाह!!


    --

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    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

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    आपका साधुवाद!!

    नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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  4. कविता के अंत की उदात्तता ने प्रभावित किया | आभार |

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