देखा मैंने एक सांवली परी को
बिखरे हुए बाल और काजल लगी आँखे
सूती फ्राक और घिसा हुआ स्वेटर
घुटनों के बीच हाथों को सिकोड़े हुए
खुद को ठिठुरन से बचाने की कोशिश करती हुई
एक ठेले पर बैठी चली जा रही थी
मै गर्म सूट और नर्म टोपी लगाये हुए
ऑफिस जाने की जल्दी में
पति की स्कूटर की पिछली सीट पर बैठी
रेलवे क्रोसिंग के खुलने का इन्जार कर रही थी
और साथ ही साथ उस ठण्ड को...
महसूस करने की कोशिश करती रही
जिसे वो अभी झेल रही थी
दूसरे दिन फिर दिखी मुझे एक और नन्ही परी
जो पहली परी से भी छोटी थी
लगभग तीन साल की वो परी
अपने भाई का हाथ पकडे
भागी चली जा रही थी
अपने नन्हे नंगे पैरों पर चुभने वाले...
किसी भी कांटे की परवाह किये बिना
मै सोच ही रही थी की कुछ करू इसके लिए
तभी साथ खड़ी मेरी मित्र बोली
देख रही हो उस बच्ची को
तीन दिन पहले मैंने इसे एक जोड़ा जूते दिए थे
ताकि उन्हें पहन कर ये ठण्ड से बच सके
लेकिन उसे जूते न पहना देख जब मैंने पूछा
की क्यों अभी तक तुमने वो जूते नहीं पहने
वो बोली माँ कहती है वो जूते पहन लूगी
तो और नहीं मिलेगे
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
सबकी अपनी एक हकीकत
ReplyDeleteसबका अपना अफसाना था
चढ़ती ढलती दिल की धड़कन
मुझको ही सब समझाना था...
क्या सोच कर ज़िन्दगी उदास है ..कुछ मिल के भी कुछ पाने की आस है ...यही ज़िन्दगी की हकीकत है ..जिस से बचना मुश्किल है ..मैंने भी इस तरह की हकीकत कल अपने दिए गर्म कपड़ों पर सुनी ...
ReplyDeleteपरी तो परी है सांवली ही सही
ReplyDeleteन हो जमीं तो पावों से सर ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ReplyDeleteपरी की कविता के साथ साथ समाज के एक वर्ग के विचारों से भी अवगत कराया आपने..सुंदर भावों के साथ आगे बढ़ती हुई कविता एक बड़े ही अलग अंदाज के साथ ख़तम हुई..बढ़िया लगा..धन्यवाद
ReplyDeleteअद्भुत अंदाज!!
ReplyDeleteयह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
सादर वन्दे
ReplyDeleteकहानी परी की थी लेकिन दर्पण हमारे समाज का दिखा!
रत्नेश त्रिपाठी
यह सब पढ़ सुन कर समझ नहीं आता कि इनकी मदद किस तरह की जाए ...लोगो द्वारा दिए अपने कम्बल बेचकर दूसरे ही दिन ठण्ड में ठिठुरते भिखारियों को देखना आम बात है ...!!
ReplyDeleteसमाज को आईना दिखला दिया आओने इस पारी के माध्यम से ......... अच्छी रचना .......
ReplyDeleteआपको नव वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ ...........
bhavpurna........sacchai.....
ReplyDelete