Thursday, December 10, 2009

तुम्हारा काम मै अब तक न कर सकी

तुमने कहा था...
पूरा कर देना मेरा वो काम,
जो अधूरा पड़ा है न जाने कबसे.
सदियाँ बूढ़ी हो गयी...
पर्वत परतों का खज़ाना इकठ्ठा करते रहे...
फूल खिल खिल कर गिरते रहे...
सितारे आवारा बनकर फिरते रहे....
लेकिन तुम्हारा काम मै अब तक न कर सकी.

वो नन्हा पौधा जिसको लगाते समय,
मैंने देखा था
वो ढक गया था मेरे तन की छाया से...
आज उसकी छाया में बैठी हूँ मै,
लेकिन तुम्हारा काम मै अबतक न कर सकी.

वो खुली खुली कालोनी
जिसमे रहती थी सपना और सलोनी,
जिसके इस छोर से उस छोर तक
पतंग से लेकर डोर तक
मंडराते थे हम शोख तितलियों की तरह
और गायब हो जाते थे पलभर में
आसमान की बिजलियों की तरह

वो कालोनी भी अब तंग हो गयी है
और वो पतंग भी न जाने कहा खो गयी है
वो नन्ही तितलियाँ अब बहुत शर्माती है
घर से बाहर निकलते हुए घबराती है
लेकिन तुम्हारा काम मै अबतक न कर सकी.

तेल लगाकर चोटी करने वाली...
ढेर सारी किताबों को बस्ते में भरने वाली
वो रंजू भी अब समझदार हो गयी है
उसके वो तेल लगे बाल अब हवा में लहराते है
उसके वो बंद होंठ अब चहचहाते हैं
उसके तन से अब उठती है महक
उसकी आवाज़ में अब रहती है खनक
अब वो हो गयी है अकलमन्द
लेकिन तुम्हारा काम अभी तक पड़ा है बंद.

वो कोमल मन जो सोचता था ....
गुड़िया की शादी कैसे रचाएंगे?
गुड्डे का घर कैसे बसायेंगे?
वो बिल्ली जो भीग गयी थी बारिश में...
उसे अब कहा छिपाएंगे?
उस मन को अब इंसानियत भी याद नहीं है
क्योंकि ये आज है कल के बचपन की बात नहीं है

जिस ओर घुमाई मैंने आँखे..
उस ओर सुनाई दी पुरानी सिसकती सांसे,
पुरानी कील पर एक नया कलेंडर
पुरानी गैस में एक नया सिलेंडर
पुरानी दीवार पर नयी पुताई
पुरानी ज़मीन पर एक नयी चटाई
ये सब है संभव
पर क्या संभव है पुराना तन और नया मन?

सबकुछ बदल गया पर नहीं बदला
मेरे तन का वो पुराना मन
मेरा वो बीता हुआ बचपन
जो चला आया अचानक सोते से जागकर
सालों, दिनों और महीनो की कैद से भागकर
रहता है वो मेरे मन में अमर बनकर
और मचल उठता है कभी कभी लहर बनकर

शायद इसीलिए मै तुम्हारा काम अभी तक न कर सकी
क्योंकि तुम भी बदल चुके हो
आधुनिक मानवो के साथ
भावनाओ रहित दानवो के साथ

काम निकलने के बाद तुम तो चल दोगे अपने रास्ते पर
नोटों की रोटी और सिक्कों की सब्जी के नाश्ते पर
पर मेरा ये पुराना मन तुम्हारी पुरानी यादों को कैसे भुलायेगा?
तुम तो चले जाओगे पर ये यादें कौन ले जायेगा?

इसलिए तुम आते रहो
और पूछते रहो अपने काम का हाल
और मै फिर यही कहूगी
न जाने क्यों मै तुम्हारा काम अबतक न कर सकी.

4 comments:

  1. एक साथ बचपन की कितनी यादों को समेत लिया है आपने ...
    तन के पुराने मन के साथ वो बीता हुआ बचपन ...
    अच्छा किया जो कभी नहीं भुलाया ....जिसने ये सब भुला दिया ...खुद को भी भुला दिया ..
    बहुत सुन्दर भावनाओं से ओतप्रोत कविता ....!!

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  2. रंजना जी,
    आप ने शब्दों का सुन्दर उपयोग करते हुए अपनी भावनाओ को बहत सुन्दरता से इस मधुर कविता का रूप दे दिया है. अति उत्तम.

    लिखते रहे..आप के बहव बहुत सुन्दर है. कबी मेरे ब्लॉग पर ज़रूर आये.( http://dayinsiliconvalley.blogspot.com/)

    आशु

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  3. इसलिए तुम आते रहो
    और पूछते रहो अपने काम का हाल
    और मै फिर यही कहूगी
    न जाने क्यों मै तुम्हारा काम अबतक न कर सकी.

    बहुत खूब ....काम के बहाने आपने अपने प्रेम का बहुत सुंदर इज़हार किया है .....!!

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  4. mujhe aapakee ye rachana bahut pyaree lagee. zamana badal raha hai bhoutikata bhaga rahee hai par man attet nahee bhaga paata .
    bahut sunder abhivyaktee .

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