दर्द को जब भी दबाऊं तो छलक आता है
जख्म का ये मिजाज़ हमको नहीं भाता है
हम तो रखतें है छुपा कर कई परतों के तले
दाग दिल का न जाने कैसे उभर आता है
मैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
सहा चुप रह के हर एक जख्म, हर एक छाला
खिली दोपहर भी देती है अँधेरे मुझको
दिखता है चाँद भी कभी कभी मुझको काला
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बहुत ही भावपूर्ण अच्छी रचना...
ReplyDeleteगज़ब कर दिया ……दर्द को क्या खूब उभारा है।
ReplyDeleteमैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
ReplyDeleteदर्द जब हमदर्द की तरह पलेगा तो दर्द तो होगा ही
dard ko n pala hota
ReplyDeleteto shabd yun gahre na hote
badi hi bhavpurn rachna...waah
ReplyDeletebahut paripkvatadikhatee lekhan kee ek bemisaal kruti........
ReplyDeleteदर्द कहीं से तो बाहर आएगा ही ... जख्म बन कर या नासूर बन कर ...
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