Monday, April 26, 2010

दर्द

दर्द को जब भी दबाऊं तो छलक आता है
जख्म का ये मिजाज़ हमको नहीं भाता है
हम तो रखतें है छुपा कर कई परतों के तले
दाग दिल का न जाने कैसे उभर आता है

मैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
सहा चुप रह के हर एक जख्म, हर एक छाला
खिली दोपहर भी देती है अँधेरे मुझको
दिखता है चाँद भी कभी कभी मुझको काला

7 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण अच्छी रचना...

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  2. गज़ब कर दिया ……दर्द को क्या खूब उभारा है।

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  3. मैंने हर दर्द को हमदर्द की तरह पाला
    दर्द जब हमदर्द की तरह पलेगा तो दर्द तो होगा ही

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  4. bahut paripkvatadikhatee lekhan kee ek bemisaal kruti........

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  5. दर्द कहीं से तो बाहर आएगा ही ... जख्म बन कर या नासूर बन कर ...

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