Tuesday, June 25, 2013

 रिसती दीवार 

सीलन से यूँ ही नहीं गिर जाती दीवारें 
बहुत दिनों तक खुद में ही
समेटती, सहेजती रहती है नमी को 
संभालती रहती हैं हर कमी को 
पर जब ये नमी उभर आती है 
बूँदें बन कर सीली हुई दीवारों पर 
फिसलती हैं लकीर बनकर किनारों पर 
तब हमदर्दी की धूप की गर्मी 
मीठे से लफ़्ज़ों की नरमी 
अगर सुखा ले गयी ये सीलन 
तो फिर जी उठता है सहने का जज्बा
वर्ना किसी दिन यूँ ही
घावों सी रिसती दीवार
दम तोड़कर ढह जाती है

- रंजना डीन

5 comments:

  1. ये सीलन जितना जल्दी हो सूख जानी चाहिए ...
    भावमय प्रस्तुति ...

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  2. बहुत सुन्दर लिखा है .

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  3. Very very beautiful...A woman is just like a wall who bears all the pain within for years silently before breaking down..loved it!

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  4. bahut bhavpurn...aapka likha bahut apna sa lagta hai

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