Wednesday, August 3, 2011
बूंदे
अक्सर आसमान में
जब दिखतें हैं काले बादल
उनके बरसते ही
टकराती है बूंदे
कांच की खिडकियों से
तो खोल देती हूँ मै कपाट
भिगोने देती हूँ चेहरा
ये सोच कर
की बूंदों की नमी के बीच
किसी के न होने की कमी
शायद पूरी हो जाये
क्योंकि ये भी वही से आई हैं
जहाँ बैठे है कुछ लोग
जिनके न होने पर भी
उनकी शिनाख्त कराता रहता है
रगों में बहता लहू
वो न सही, शायद उनका प्यार हो
जो बन के बूंदे बरस रहा है
उन सब पर जो
महसूस कर सकतें हैं उन्हें
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क्योंकि ये भी वही से आई हैं
ReplyDeleteजहाँ बैठे है कुछ लोग
जिनके न होने पर भी
उनकी शिनाख्त कराता रहता है
रगों में बहता लहू
वाह.... गहन अभिव्यक्ति....
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर
बहुत खूब....
ReplyDeleteमैंने भी हाल में इन्ही बूंदों पर कुछ लिखा....
जरुर पढ़ें http://www.poeticprakash.com/2011/07/blog-post_27.html
gahan abhivaykti...
ReplyDeletebahut sundar bhavabhivykti
ReplyDeletebahut alag aur sunder tarah se vyakt ki kisi ki kami ....
ReplyDeleteshubhkamnayen.