Wednesday, August 3, 2011














बरसती, टपकती, सरकती, फिसलती
लटों में उलझती, लबों पर थिरकती
ये बूंदे मुझे खींच लाती हैं बाहर
मेरे घर के आंगन में जब भी बरसती

7 comments:

  1. Wow...

    How nice ...

    टिप्पणी के लेन-देन के पीछे छिपी हक़ीक़त को बेनक़ाब होता हुआ देखने के लिए हमने एक कहानी लिखी है
    आप क्या जानते हैं हिंदी ब्लॉगिंग की मेंढक शैली के बारे में ? Frogs online

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  2. बहुत बढ़िया।

    सादर

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  3. बहुत ही सुंदरता से एहसासों को शब्द दिया है आपने...लाजवाब।

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  4. ek aah si nikli.. apne aangan ki or dekha to baarish abhi bhi ho rahi thi...

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  5. beautiful post. THis poem touched my heart,
    excellent write!

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