Saturday, December 3, 2011



तब्दील हो रही हैं शायद मेरी आंखे
चलते फिरते कैमरे में
दीवारों पर परछाइयों की आड़ी टेढ़ी रेखाएं
ढलते सूरज की सुनहरी धूप का पीलापन
पत्तों पर जमी हुई ओस
या हवा के थपेड़ों में लहराते पेड़
हर एक पल समेट लेना चाहती हूँ
ताकि लम्हे के गुज़र जाने के बाद भी
थमा सा रह जाये वो लम्हा कहीं
इस बार क्रिसमस पर संता क्लाउस
तुम मेरे पास ज़रूर आना
और देना मुझे मेरा गिफ्ट
एक डिजिटल एसएलआर
क्योंकि अब मेरा नन्हा सा डिजिटल केमरा
मेरी सोच की उड़ान के साथ दौड़ नहीं पाता
और पूरी मेहनत के बाद भी सुकून न मिले
ये मुझे नहीं भाता

3 comments:

  1. सुन्दर भावपूर्ण रचना....बधाई

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  2. आमीन ... आपकी मनोकामना जरूर पूर्ण हो ... जीवन के असल रंगों को आप उतार सकें केन्सास और कविता में ...

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  3. दिगम्बर जी, आपकी कविताएँ और शुभकामनाएं दोनों ही मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं...सादर धन्यवाद....:)

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