Tuesday, November 29, 2011

बर्फ बनकर रेत शायद उड़ रही है
धुंध लहरा कर फलक से जुड़ रही है
कुछ कदम पर जा के सबकुछ गुमशुदा है
क्या पता राहें कहाँ को मुड़ रही हैं
चाँद के मुह से भी धुआं आ रहा है
आजकल जल्दी वो सोने जा रहा है
चांदनी ये देखकर गमगीं हुई है
चाँद की खातिर वो स्वेटर बुन रही है

5 comments:

  1. चाँद का स्वेटर बुनना अच्छा लगा बहुत खूब .......

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  2. Namaskaar...

    Chandani ka jo sweatar, mile chand ko..
    Prem uska bhi aakhir, dikhe chand ko..
    Wo rahi hai magan, chand ke bas liye..
    Man ke aangan main baithi liye chand ko...

    Sundar ahsaas..

    Deepak Shukla
    www.deepakjyoti.blogspot.com

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  3. बेजोड़ भावाभियक्ति....

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  4. कमाल का जादू है आपके लफ़्ज़ों के चुनाव में...
    बहुत खूब.

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