Monday, October 18, 2010

ख़ुशी


मैंने देखे हैं कई बार
पानी के बुलबुलों पर
ठहरे हुए इन्द्रधनुष

पर वो रुकते नहीं होते
हल्की सी थिरकन के साथ
टहलते है उस नन्हे से बुलबुले में

बचपन से बहुत लुभाते हैं मुझे
घंटो निहारा है इन्हें

साबुन का झाग बना कर
बड़े से बड़ा बुलबुला बनाने की कोशिशें
और कोशिशों में कामयाब होने की ख़ुशी

सच है ख़ुशी का कोई मोल नहीं
कभी मुफ्त में खुशियों का ढेर
तो कभी नोटों के ढेर में भी
ख़ुशी नदारत

6 comments:

  1. मुफ्त में मिली खुशियाँ ही नायाब हैं ...
    जैसे खुशबू, हवा, धूप, रिश्ते ....
    मगर इनपर ध्यान नहीं जाता उनका जो बड़ी और महँगी खुशियाँ तलासते रहते हैं ...और जब उन्हें वे मिल जाती हैं तो उनमे सच्ची ख़ुशी नहीं पाकर निराश हो जाते हैं ...
    अच्छी कविता ...!

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  2. बड़े होंकर हमें छोटी छोटी चीज़े नज़र ही नहीं आती..

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  3. बिलकुल सही कहा। अच्छी लगी रचना। बधाई।

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  4. बहुत भावपूर्ण...
    याद आ गया बीता हर पल.. बार-बार पढ़ने की इच्‍छा हो रही है..
    इस भावपूर्ण लेखन के लिए आभार स्‍वीकार कीजिए..

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  5. पद्य छोड़िए और भावों को गद्यात्मक शैली में लिखिए....
    देखना, सब कुछ बदल जाएगा...
    शुभकामनाएं :)

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