Monday, October 11, 2010

नन्हा सा घोसला


रोज़ जोडती हूँ तिनके
थक गयी हूँ बिनते बिनते

पर मेरा नन्हा सा घोसला
झेल रहा न जाने कितनी बला

कभी बारिश, कभी तूफ़ान,
कभी गर्मी का उफान

कभी सुलगाता है
कभी डुबो जाता है

कभी पानी पर उतराता है
कभी आहट से थरथराता है

फिर भी पंखो के नीचे समेटे हुए
घोसले और उसके परिंदों को

बचाने की कोशिशों में
काट रही हूँ ये धधकते, कड़कते दिन

क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
इन परिंदों और घोसले के बिन

8 comments:

  1. wah kya baat hai..........
    bahut sunder bhav piroye hai ise rachanaa me aapne...........
    Aabhar

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  2. bas kahna chahungi ki yah kavita vatvriksh ke liye bhej den rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath

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  3. क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
    इन परिंदों और घोसले के बिन...

    एक मां के दिल का बयान इससे बेहतर क्या हो सकता है ...
    बहुत -बहुत बढ़िया!

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  4. जीवन तो इससे भी बड़ा है .... पाए इतना भी हो सके इस जीवन में तो बहुत है ...

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  5. बेह‍तर रचना। अच्‍छे शब्‍द संयोजन के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति।
    कविता का अन्त लाजवाब् है और मन को मोह लेता है ।

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