सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,
हसरतों की हदों पर न कब्ज़ा हुआ....
कब ज़मीन पूछती है कहाँ से हो तुम?
जब किसी बूँद ने उसके तन को छुआ।
क्या कभी धूप को खुरदुरे फर्श पर...
कोई पौधा सवालों का बोते सुना?
क्या कभी ओस ने पूछ मज़हब शहर,
वादियों के किसी ख़ास गुल को चुना?
क्या कभी चाँद तारों ने अपनी चमक
बांटते वक़्त सोचा यहाँ या वहां?
फिर क्यों हम बांटते? फिर क्यों हम काटते?
लेके जाएगी ये सोच हमको कहाँ?
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ है। आप अच्छा लिख रही हैं। खासकर यह ताजी रचना तो काफी झिंझोड़ने वाली है। अब जबकि देश 63वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, ऐसे में यह रचना और भी प्रासंगिक हो गई है।
ReplyDeleteपंछी ,नदिया, पवन के झोंके ...
ReplyDeleteकोई सरहद ना इन्हें रोके ....
सरहद इंसानों के लिए है ...
सुन्दर कविता ...!
Hi..
ReplyDeleteHar haden apni banayi..
Desh duniya ya ho dil..
Jaisa rab ne tha banaya..
Vaisa ensaan na hai ab..
Sundar bhav..
Deepak..
www.deepakjyoti.blogspot.com
सरहदों की हदें तय तो कर दी मगर,
ReplyDeleteहसरतों की हदों पर न कब्ज़ा हुआ....
kya khub likha hai aapne......
bahut hasrat hai arma
aur har hasrat pe jaan nikle........:)
ये तो सचमुच बढ़िया रचना है....हिंदयुग्म पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़ी तो चला आया.....आगे भी आता रहूंगा....आप भी मुझे पढ़ती रहें.....
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