Wednesday, February 24, 2010

बड़े दिनों से न जाने
कितना कुछ मन में छुपा हुआ था
था कोई तूफ़ान
न जाने कैसे अबतक रुका हुआ था


एक बहुत मज़बूत इमारत
धीरे धीरे दरक रही थी
आज मोम बन पिघल रही थी
मन में जो भी कसक रही थी


गहराई की सारी सीमा
भरते भरते आज भरी थी
मै जितनी मासूम थी दिल से
दुनिया उतनी सख्त कड़ी थी


सब कुछ सहा अकेले मैंने
दर्द भरे दिन - दुःख की रातें
फिर भी लोग चला करते हैं
कितनी साजिश, गहरी घातें


रो लेती हूँ सबसे छुप कर
लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
पन्ने हो जाते हैं गीले
बोझ दर्द का थोडा सा कम

6 comments:

  1. रो लेती हूँ सबसे छुप कर
    लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
    पन्ने हो जाते हैं गीले
    बोझ दर्द का थोडा सा कम

    -बहुत भावपूर्ण..

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  2. रो लेती हूँ सबसे छुप कर
    लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
    पन्ने हो जाते हैं गीले
    बोझ दर्द का थोडा सा कम....

    बहुत ही दिल को छुने वाली पंक्ती है!

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  3. रो लेती हूँ सबसे छुप कर
    लिख लेती हूँ कागज़ पर गम
    पन्ने हो जाते हैं गीले
    बोझ दर्द का थोडा सा कम

    लिख लेने से दर्द कम हो जाता है ... सच है ये .... किसी को कह देने से भी दर्द कम हो जाता है ... पर झूठे जमाने पर विश्वास कैसे हो ...

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  4. bahut bahut bhavpoorn hai ye rachana .ye aasoo bah kar kabhee kabhee bada sukoon de jate hai......

    होली की हार्दिक शुभकामनाएं....

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  5. man ki vedna ki achhi prastuti hai...

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