Monday, February 17, 2014

ज़िंदा हूँ मैं 

तुम्हे पता है मैं हूँ परिंदा 
कुछ मायूस मगर ज़िंदा
और मुझे पता है तुम्हे पसंद नहीं मेरी उड़ान 
इसलिए समेट लिए हैं मैंने अपने पँख 
और फुदकती रहती हूँ घर के आँगन में 
देखती रहती हूँ आसमान के परिंदों कि उड़ान 
उनका आना - उनका जाना 
उनका दरख्तों पर बैठ पंख फड़फड़ाना, चहचहाना 
कभी कभी हो जाती हूँ उदास 
ज़िंदगी नहीं आती रास 
फिर रोपने लगती हूँ 
घर के आँगन में कुछ खुशियों के पौधे 
कि उनकी देखभाल में शायद 
कुछ पल को हट जाये नज़र आसमान से 
भूल जाऊँ अपने परिंदे होने के एहसास को 
पर आसमान से लहराकर गिरता है  
जब कोई पंख मेरी हथेली पर 
फिर से याद आ जाता है 
ज़िंदा हूँ मैं 
परिंदा हूँ मैं 

- रंजना डीन 

3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।

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  2. aapki kavitaye bahut apni si lagti hain..

    behad sundar.

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