ज़िंदा हूँ मैं
तुम्हे पता है मैं हूँ परिंदा
कुछ मायूस मगर ज़िंदा
और मुझे पता है तुम्हे पसंद नहीं मेरी उड़ान
इसलिए समेट लिए हैं मैंने अपने पँख
और फुदकती रहती हूँ घर के आँगन में
देखती रहती हूँ आसमान के परिंदों कि उड़ान
उनका आना - उनका जाना
उनका दरख्तों पर बैठ पंख फड़फड़ाना, चहचहाना
कभी कभी हो जाती हूँ उदास
ज़िंदगी नहीं आती रास
फिर रोपने लगती हूँ
घर के आँगन में कुछ खुशियों के पौधे
कि उनकी देखभाल में शायद
कुछ पल को हट जाये नज़र आसमान से
भूल जाऊँ अपने परिंदे होने के एहसास को
पर आसमान से लहराकर गिरता है
जब कोई पंख मेरी हथेली पर
फिर से याद आ जाता है
ज़िंदा हूँ मैं
परिंदा हूँ मैं
- रंजना डीन
बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअनमोल शब्द.
ReplyDeleteaapki kavitaye bahut apni si lagti hain..
ReplyDeletebehad sundar.