Sunday, May 29, 2011

देवी बनाकर, पूज कर
इन्सान न रहने दिया
मन में था जो सब दब गया
कुछ न कभी कहने दिया

ये ताज सोने का बहुत भारी है
मेरे सिर पे पर
देखे नहीं नासूर और
रिसता लहू बहने दिया

वो एक पल भी दर्द का
बर्दाश्त कर पाए नहीं
सदियों से हमको दर्द का
ये सिलसिला सहने दिया

2 comments:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति!

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  2. khubsoorat abhivyakti...Sone ka taj sachmuch me bhari hota hai...lahu ke risne ka dard sahe kaun...dard ka silsila padha achha laga.

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