Saturday, July 10, 2010
चुप सी थी वो शुरू से...
चुप सी थी वो शुरू से...
धीरे धीरे उगने लगे शब्द..
उसकी जुबान पर,
और चहचहाना शुरू किया उसने.
और पंखो को फ़ैलाने की कोशिश में...
पार किये उसने छोटे छोटे रास्ते,
ये छोटे छोटे रास्ते तय करते करते...
एक दिन पंहुच गयी वो एक ऊँची से पहाड़ पर.
पर उस पहाड़ पर देखा उसने...
खुद तो सबसे ऊँचा दिखाने के लिए,
लोग दे रहे थे धक्के एक दूसरे को.
वो हैरान सी देखती रही...
खुद को ऊँचा बनाये रखने के इस तरीके को,
और सोचती रही आगे बढूँ या नहीं?
फिर वो धीरे से मुड़ गयी एक नयी राह की और...
और रखनी शुरू की नन्ही ईंटे,
मेहनत की, इमानदारी की, सच्चाई की.
देर से सही, थोडा कम ऊँचा ही सही...
पर अब वो भी है एक पहाड़ की ऊंचाई पर,
लेकिन उसे सुकून है इस बात का...
की जब वो देखती है उस पहाड़ी से नीचे,
तो उसे कोई भी ऐसा नहीं दीखता...
जिसे धक्का देकर हासिल की उसने ये ऊंचाई.
उसे सिर्फ दिखाई देती है उसकी मेहनत
और उस मेहनत की गाढ़ी कमाई.
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bahut sunder......
ReplyDeleteaaj ka saty ye hee hai........doosaro ke kandhe par chad oonche pahuchane walo kee bhee kamee nahee..........
apnee maihnat rang latee hee hai.
Shandaar rachna .. sach hai aisi unchaai se kya faayda jo doosron ko gira kar haansil ki ho ...
ReplyDeleteखुद तो सबसे ऊँचा दिखाने के लिए,
ReplyDeleteलोग दे रहे थे धक्के एक दूसरे को.
वो हैरान सी देखती रही...
खुद को ऊँचा बनाये रखने के इस तरीके को,
और सोचती रही आगे बढूँ या नहीं?
फिर वो धीरे से मुड़ गयी एक नयी राह की और...
और रखनी शुरू की नन्ही ईंटे,
मेहनत की, इमानदारी की, सच्चाई की.
देर से सही, थोडा कम ऊँचा ही सही...
बस यही ऊँचाई मेरी मंजिल है ...
प्रेरक कविता ...बहुत सुन्दर ...!!
उत्कृष्ट ।
ReplyDeleteis galakat pratiyogita ke daur me ye panmktiyan kafi sukoondayak hain.........
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