Thursday, October 3, 2013

घर 

संग-ए-मरमर फर्श पर है 
मखमली दीवारों दर 
है मकां ये खूबसूरत 
पर नहीं लगता ये घर 

न चहकते हैं परिंदे 
न यहाँ बच्चों का शोर 
छत से गुजरी जब पतंगे 
न किसी खींची डोर

न कभी आया कोई ख़त
न ठहाकों की फिज़ा
दर्द बोया था कभी
अब उसके साये की सज़ा

नीव हो बस प्यार की
और दिल में न हो कोई डर
छोटे छोटे लम्हे बुनकर
बनता है कोई भी घर

- रंजना डीन

1 comment:

  1. अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.

    शब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)

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