घर
संग-ए-मरमर फर्श पर है
मखमली दीवारों दर
है मकां ये खूबसूरत
पर नहीं लगता ये घर
न चहकते हैं परिंदे
न यहाँ बच्चों का शोर
छत से गुजरी जब पतंगे
न किसी खींची डोर
न कभी आया कोई ख़त
न ठहाकों की फिज़ा
दर्द बोया था कभी
अब उसके साये की सज़ा
नीव हो बस प्यार की
और दिल में न हो कोई डर
छोटे छोटे लम्हे बुनकर
बनता है कोई भी घर
- रंजना डीन
संग-ए-मरमर फर्श पर है
मखमली दीवारों दर
है मकां ये खूबसूरत
पर नहीं लगता ये घर
न चहकते हैं परिंदे
न यहाँ बच्चों का शोर
छत से गुजरी जब पतंगे
न किसी खींची डोर
न कभी आया कोई ख़त
न ठहाकों की फिज़ा
दर्द बोया था कभी
अब उसके साये की सज़ा
नीव हो बस प्यार की
और दिल में न हो कोई डर
छोटे छोटे लम्हे बुनकर
बनता है कोई भी घर
- रंजना डीन
अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)