ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
रंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये
लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा
मन के घाव बहे न जबतक
नैनों के गलियारे से
गालों से होकर होठों को
कर जाएँ जब खारे से
तब उगती है कोई कविता
तब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत
रंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये
लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा
मन के घाव बहे न जबतक
नैनों के गलियारे से
गालों से होकर होठों को
कर जाएँ जब खारे से
तब उगती है कोई कविता
तब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत
ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
ReplyDeleteरंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये
वाह...क्या बात कह दी !!!
मन में उतर गयी रचना...
बेहतरीन , बहुत बहुत सुन्दर
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ है, बेहतरीन !
ReplyDeleteतब उगती है कोई कविता
ReplyDeleteतब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत
behad sundar ....kasht srijan ki neenv banega ....
कविता की अंतर्यात्रा बखूबी बयान किया है
ReplyDeletebahut khub likha hai aapne
ReplyDeleteकविता - गीत के सृजन को परभाषित करती बहुत सुंदर प्रस्तुति - वाह वाह.
ReplyDeleteढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
ReplyDeleteरंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये
लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा.
bahut hi sundar likhti h aap.
Really beautiful poem.my best wishes for many more.
ReplyDeletedr.bhoopendra
kya kahun
ReplyDeletesunder
ReplyDeletemasttt
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