Thursday, January 6, 2011

ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे



ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
रंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये

लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा

मन के घाव बहे न जबतक
नैनों के गलियारे से
गालों से होकर होठों को
कर जाएँ जब खारे से

तब उगती है कोई कविता
तब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत

11 comments:

  1. ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
    रंगने को कुछ कवितायेँ
    सभी शब्द कच्चे रंगों से
    कोई मन को न भाये

    वाह...क्या बात कह दी !!!

    मन में उतर गयी रचना...

    बेहतरीन , बहुत बहुत सुन्दर

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  2. बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ है, बेहतरीन !

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  3. तब उगती है कोई कविता
    तब बनता है कोई गीत
    सदियों से सच्चे लेखन की
    एक यही एकलौती रीत
    behad sundar ....kasht srijan ki neenv banega ....

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  4. कविता की अंतर्यात्रा बखूबी बयान किया है

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  5. कविता - गीत के सृजन को परभाषित करती बहुत सुंदर प्रस्तुति - वाह वाह.

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  6. ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
    रंगने को कुछ कवितायेँ
    सभी शब्द कच्चे रंगों से
    कोई मन को न भाये

    लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
    बिना प्राण के तन जैसा
    ऋतू बसंत आने से पहले
    पतझड़, निर्जन वन जैसा.

    bahut hi sundar likhti h aap.

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