Saturday, November 14, 2009

गुमशुदा सी ज़िन्दगी में तयशुदा कुछ भी नहीं,
कुछ नहीं खुद का मगर खुद से जुदा कुछ भी नहीं,
देख कर गैरों के गम जब दर्द से दिल रो उठे...
बस यही तो है खुदाई और खुदा कुछ भी नहीं .

2 comments:

  1. गेरों का दर्द समझने वाली अच्छी कविता ।

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  2. soch samaz, apna paraya...
    accha bura kuch bhi nahi

    aankhen kyu chalki barbas...
    haal-e-dil baya kiya hai usne
    likha kya kuch bhi nahi....



    bahut achhe shayaraa....

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