गुमशुदा सी ज़िन्दगी में तयशुदा कुछ भी नहीं, कुछ नहीं खुद का मगर खुद से जुदा कुछ भी नहीं, देख कर गैरों के गम जब दर्द से दिल रो उठे... बस यही तो है खुदाई और खुदा कुछ भी नहीं .
सन्नाटे को सुनने की कोशिश करती हूँ...
रोज़ नया कुछ बुनने की कोशिश करती हूँ...
नहीं गिला मुझको की मेरे पंख नहीं है....
सपनो में ही उड़ने की कोशिश करती हूँ.
गेरों का दर्द समझने वाली अच्छी कविता ।
ReplyDeletesoch samaz, apna paraya...
ReplyDeleteaccha bura kuch bhi nahi
aankhen kyu chalki barbas...
haal-e-dil baya kiya hai usne
likha kya kuch bhi nahi....
bahut achhe shayaraa....