Saturday, February 2, 2013





















रोज़ समेटती हूँ बिखरी हुई जिंदगी 
सुबह उठते ही बुहार कर
एक जगह इकट्ठा करती हूँ तिनके 
थोडा पानी भी छिड़क देती हूँ 
की नमी से शायद थमी रहे कुछ पल  
पर उफ़ ये बवंडर 
इन्हें हमेशा मेरा आँगन ही क्यों दिखता है 
क्यों घूम फिर कर यही आ जाते हैं 
और दिन भर की थकी मै 
फिर से लग जाती हूँ अपने काम पर 
फिर से वही बिखरना, वही समेटना
पर जबतक सांस है आस भी है 

6 comments:


  1. बवंडर सबके आँगन में आते हैं....हम अपनी चारदीवारी के बाहर कहाँ देखते हैं.....
    यही जिंदगी है...

    अनु

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  2. फिर से लग जाती हूँ अपने काम पर
    फिर से वही बिखरना, वही समेटना

    मार्मिक अभिव्यक्ति..!

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  3. बाह, एक दम सही .
    फिर से लग जाती हूँ अपने काम पर
    फिर से वही बिखरना, वही समेटना

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