Monday, August 6, 2012


















बारिशों में खिडकियों पर
थपथपाकर बह निकलती
फूल पौधे चूमती
लट पर ठहरती और फिसलती

धुल के कतरा कतरा 
कर देती सभी कुछ पानी पानी
शर्म के मारे ज़मी ने 
ओढ़ ली चुनर है धानी

मन बहकने सा लगे है
देख कर मेघा ये काले
कितना रोया है उमड़ कर
कितने इसने दर्द पाले

आज रो लेने दो इसको
दर्द बह जाने दो सारा
फिर नहीं गम होगा कोई
न कोई आंसू की धारा

हल्के बादल, हल्का सा मन
होंगी हल्की सी फुहारें
हौले हौले आ के लग जाएँगी
खुशियों की कतारें 

4 comments:

  1. सुन्दर......
    मनभावन........
    अनु

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  2. बहुत सुन्दर...
    वाह!
    कुँवर जी,

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  3. बारिश के बहाने दर्द बह सकता तो बात ही क्या ..

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