Saturday, July 7, 2012

दो जून की रोटी जो मयस्सर न हुई
तो खुदखुशी कर छोड़ दी दुनिया उसने
उसको क्या पता था कही पर बोरियों में
सड़ते पड़े हैं उसके उगाये गेंहू

8 comments:

  1. मार्मिक .....

    अनु

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  2. जो उसके हो ही नहीं सकते थे !!!

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  3. हमारे भ्रष्ट समाज का सही चित्रण ...

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  4. use to bas karte rahnaa hai,pet ke liye kisi tarah jeenaa hai

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  5. बेहद सुन्दर सटीक रचना, बधाई
    (अरुन शर्मा = arunsblog.in)

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  6. हर दर्द पर निगाह रहती है आपकी। वाकई सोचो तो कितना अज़ीब लगता है कि हमारी व्यवस्था किसी किसान के श्रम के मूल्य को संरक्षित तक नहीं कर पा रही है .....कितना निर्लज्ज और कठोर उपहास है यह श्रम के मूल्य का...

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