Tuesday, April 30, 2013

हर हँसते चेहरे के पीछे 
टूटा सा एक दिल होता है 

जी लूँ कुछ पल साथ तुम्हारे 
सुन लूँ तेरे सारे सुख दुःख 
कह दूँ तुझसे मन की गाथा 
ऐ पल थम जा,थोड़ा सा रुक 

समझ न पाई क्या न भाया 
कब मैंने तुझको उकसाया 
कब कह दी कुछ कडवी बातें 
कब कुछ अनचाहा सा गाया 

कब सिरहाने आकर तेरे 
नींद तुम्हारी खारी कर दी?
कब आँखों को अश्क दिए 
और पलकें तेरी भारी कर दी?

इतने सारे प्रश्न छोड़कर 
ऐसे कैसे जा सकते हो?
कारण कोई भी हो मुझको 
खुल कर तुम बतला सकते हो 

मन पर बोझ उठा कर जीना 
थोडा  सा मुश्किल होता है 
हर हँसते चेहरे के पीछे 
टूटा सा एक दिल होता है 

- रंजना डीन 

Sunday, April 21, 2013































हर मर्द खड़ा शर्मिंदा है, हर औरत सहमी-सहमी-सी

हर और मचा है शोर और ख़बरों की गहमा गहमी सी 


कन्याओं की पूजा करके हम सभ्य सरीखे दीखते हैं


पर वहशीपन का चरम यहाँ, और दिखती है बेरहमी सी

Sunday, April 14, 2013












याद की सियाही 

याद की गहरी सियाही 
फिर टपक कर बह रही  है 
कागजों पर भूली बिसरी 
बात फिर से कह रही है 
चुभ रही है निब की पैनी धार
इसके तन बदन पर 
ज़ख्म ये सदियों से सहकर 
बात अपनी कह रही है 

                    - रंजना डीन 



Sunday, April 7, 2013

सोचती हूँ डूब मरुँ गोमती में 
बहुत देख ली जिंदगी
वही सुबह वही शाम 
वही रोज़ के तमाम काम  
फिर सोचती हूँ गोमती ही क्यों?
डूबने के लिए जगहों की कमी है क्या?

क्यों न डूब जाऊं बेटी की मासूम आँखों में 
जन्नत उससे ज्यादा अच्छी और कहा मिलेगी?
क्यों न डूब जाऊं उस हर अधूरे काम को पूरा करने में 
जो न जाने कबसे मन की पिटारी में 
छोटी छोटी चिट्स की तरह इकट्ठा होते रहे आजतक 

या डूब जाऊं वो सारे शौक पूरे करने में 
जो जब तब कुलांचे मारते रहते हैं मन के मैदान में 
कैमरा कंधे पर टांग कर निकल पडू 
अनछुई सी प्रकृति को महसूस करने 
जिनके न जाने कितने संयोजन 
मन ही मन उकेर चुकी हूँ 
लिख डालूं एक काव्य संग्रह 
कोई छोटा सा उपन्यास 
या फिर कुछ पेंटिंग्स 

या फिर डूब जाऊं और डुबा दूँ 
स्नेह के सागर में सलोने सजन को 
फिर पहले से डूबे हुए लोगो को 
कही और डूबने की ज़रूरत कहाँ?