Friday, August 26, 2011















क़ल कंप्यूटर के संग मैंने काटी सारी रात
आँखों में मोनिटर था और माउस पर था हाथ
नींद बार बार कहती थी सो जा अब तू सो जा
क़ल ऑफिस भी तो जाना है सपनो में अब खो जा
लेकिन बोझ काम का मेरी थाम रहा था बांह
पलकें मुंद कर बोल रही थी सोने की है चाह
बड़ी देर तक चली बहस पर नींद अंत में जीती
रात ३ से ७ बजे तक खर्राटों में बीती

Wednesday, August 17, 2011

हम गुज़ारिश क्यों करे

हम गुज़ारिश क्यों करे
उनसे सिफारिश क्यों करें
यूँ उदासी ओढ़ कर
अश्कों की बारिश क्यों करे

ले हुनर और हौसला
जुट जाएँ हम मैदान में
हम करें ख़ारिज उन्हें
हमको वो ख़ारिज क्यों करें

सोच के पंखों को हम
परवाज़ दें कुछ इस कदर
ढूंढे नयी मंजिल
गए जख्मों में खारिश क्यों करें

Wednesday, August 3, 2011














बरसती, टपकती, सरकती, फिसलती
लटों में उलझती, लबों पर थिरकती
ये बूंदे मुझे खींच लाती हैं बाहर
मेरे घर के आंगन में जब भी बरसती

बूंदे




















अक्सर आसमान में
जब दिखतें हैं काले बादल
उनके बरसते ही
टकराती है बूंदे
कांच की खिडकियों से
तो खोल देती हूँ मै कपाट
भिगोने देती हूँ चेहरा
ये सोच कर
की बूंदों की नमी के बीच
किसी के न होने की कमी
शायद पूरी हो जाये
क्योंकि ये भी वही से आई हैं
जहाँ बैठे है कुछ लोग
जिनके न होने पर भी
उनकी शिनाख्त कराता रहता है
रगों में बहता लहू
वो न सही, शायद उनका प्यार हो
जो बन के बूंदे बरस रहा है
उन सब पर जो
महसूस कर सकतें हैं उन्हें