Wednesday, January 26, 2011



इन्क्रीमेंट से पहले

जबतक मिलता रहता है कर्म का फल
लगता है जीवन कितना है सफल

हर बोये हुए बीज का फल मिलेगा
जिसे सींचा है बड़ी लगन से वो फूल खिलेगा

हम चखेंगे मिठास, महसूस करेंगे सुगंध
महक उठेगा मन मकरंद



इंक्रीमेंट के बाद

जब आपकी मेहनत किसी और का बहीखाता सजाती है
जब उनतक गड्डियां और आपतक कोड़ियां आती हैं

जब आपके लिए सिर्फ काम और उनके लिए सिर्फ दाम होते है
आपकी सांसे हराम, और उनके लिए सिर्फ आराम होते हैं

तो हर पल आता है एक नया ख्याल
बजा दो तमांचो से सामने वाले का गाल

फंसा दो काम ऐसे की न घर रहे न घाट
लगा दो उसकी जमकर वाट

मना कर दो हर काम, करके बहाना
याद दिला दो उसकी नानी और नाना

उसके बालों से बांध कर उसे पंखे पर दो टांग
छोड़ आओ चौराहे पर पिलाकर भांग

फिर छोड़ दो पागल कुत्ते उसके पीछे
कोई कुत्ता आगे, कोई पीछे से खींचे

तब शायद आये थोड़ी सी राहत
बस इतनी ज़रा सी है मेरी चाहत


ये कविता केवल मन की भड़ास निकलने के लिए लिखी गयी है.
इसलिए इसको पढ़े, मुस्कुराएँ और भूल जाएँ.

Thursday, January 6, 2011

ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे



ढूंढ रही हूँ शब्द सुनहरे
रंगने को कुछ कवितायेँ
सभी शब्द कच्चे रंगों से
कोई मन को न भाये

लिखा बहुत कुछ सब बेमानी
बिना प्राण के तन जैसा
ऋतू बसंत आने से पहले
पतझड़, निर्जन वन जैसा

मन के घाव बहे न जबतक
नैनों के गलियारे से
गालों से होकर होठों को
कर जाएँ जब खारे से

तब उगती है कोई कविता
तब बनता है कोई गीत
सदियों से सच्चे लेखन की
एक यही एकलौती रीत