Saturday, May 29, 2010

कागज़ को प्यार से सहलाकर


कागज़ को प्यार से सहलाकर
खुशबुओं से नहलाकर
सोचती हूँ लिखू
कोई प्यार भरा गीत

जिसमे तारों भरे आसमान तले
जुगनू टिमटिमाते हो
हवा के झोंके जहाँ बिना किसी
खिड़की, दरवाज़े से टकराए हुए आते हों

जहाँ एक दूसरे के सुख से बढ़कर
कोई चाह न हो
जहाँ अलग कर देने वाली
कोई राह न हो

जहाँ किसी को समझने के लिए
लफ़्ज़ों की नहीं दिल की ज़रूरत हो
जहाँ चेहरे नहीं
नियत खूबसूरत हों

जहाँ लोग क्या कहेगे
कहने वाला कोई न हो
जहाँ मासूमियत ने
अपनी सूरत धोयी न हो

जहाँ शान के लिए
जान बिकती न हो
जहाँ इंसानों में हैवानियत
दिखती न हो

Tuesday, May 25, 2010

स्नेह का दीप जलाते वक़्त
सोचा नहीं होगा उसने
की केवल उन्ही दीपों को
जलने का अधिकार
दिया है इस समाज ने
जो जलते है मंदिरों में,
घर की मुंडेर पर
या मृत्यु पश्चात सिराहने पर.
इसीलिए छुपाती फिरी वो
अपने स्नेह दीप को
लेकिन प्रेम का प्रकाश
कब रुका है रोकने से?
पर उसकी रौशनी अँधेरा कर गयी
उसी के जीवन में जिसने
जलाया था वो दीप
क्योंकि....
समाज भी तो कोई चीज़ है
कैसे मिल जाने देता दो दिलो को
परिवार वाले कैसे मुंह दिखाते समाज को
तो चलो एक हत्या ही सही
रिश्तों की, स्नेह की, सपनो की
एक जान ही तो गयी
आन, मान, शान तो बाकि है
अभिमान तो बाकि है
बेटी तो वैसे भी विदा होती
डोली न सही अर्थी ही सही
तो लो हो गयी बेटी विदा
और आसमान के घूँघट से
झांक कर पूछ रही है
माँ...
जान ज्यादा कीमती होती...
है या अभिमान?

Thursday, May 20, 2010

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Saturday, May 15, 2010

उँगलियों और किबोर्ड

थकी हुई आँखों में भरी हुई है नीद
पर कंप्यूटर के किबोर्ड
पर थिरकती उँगलियाँ
अभी भी बांधे हुए है उम्मीद
की शायद यहाँ से भेजे हुए इमेल्स
वहां तक पहुँचकर
कुछ करामात दिखायेंगे
कहीं किस्मत, तो कहीं दिल के
दरवाज़े खटखटाएंगे
और फिर शायद भर जाये
किसी दिल का खाली कोना
या बदल जाये किसी की
बदकिस्मती खुशकिस्मती में
और बढ़ता जाये प्यार
उँगलियों और किबोर्ड में लगातार

Thursday, May 13, 2010

टूटी बिखरी किरचों को मै चिपकाती रहती हूँ
गीत अधूरा या हो पूरा गुनगुनाती रहती हूँ
रंग बिरंगे लम्हे सीकर चादर सी बुन ली है
बेरंगे लम्हों में उसे ओढ़कर सो जाती हूँ

Sunday, May 9, 2010

एरोकेरिया का पेड़

एरोकेरिया का पेड़
मेरे घर के आँगन में खड़ा
आया था नन्हा सा
धीरे धीरे होता जा रहा था बड़ा
रोज़ कड़क धूप सहता
और चुपचाप खड़ा रहता
शाम को जब हम ऑफिस से आते
तो उसे देख कर लगता
जैसे किसी मासूम को
दिनभर धूप में खड़े रहने की
सजा मिली हो
एक दिन पति को उसपर तरस आया
और उन्होंने उसे बरामदे की अन्दर
दिवार की आड़ में जा टिकाया
अब उस पेड़ का पीलापन कम होने लगा
उसका रूखापन धीरे धीरे नम होने लगा
एक दिन बारिश आने पर मैंने सोचा
क्यों न इसे बरामदे से हटा कर
बारिश में भीगने दूँ
बारिश की फुहारों से
उसे खुद को सीचने दूँ
पर जब मैंने उसे खिसकाया
तो उसमे एक अजीब सा फर्क पाया
उस पेड़ की वो टहनियां
जो दिवार की तरफ थी
उतनी ही बढ़ी थी
जितनी जगह थी उनके पास
वो दीवार देख कर रुकने लगी थी
जबकि उसी पेड़ की दूसरी तरफ की टहनियां
लम्बी होकर नीचे को झुकने लगी थी
खुद को हरा रखने के लिए
उस पेड़ ने अपनी टहनियों की लम्बाई से
समझोता कर लिया था
वैसे ही जैसे हम करते है
अक्सर जिंदगी में
सबकुछ जोड़कर रखने के लिए
कुछ चीज़ों को टूट जाने देते हैं

Friday, May 7, 2010

उदास धूप

पीले से पत्तों के नीचे
छुपी हुई है छांव दुबक कर
धूप उदास अकेली उसको
ढून्ढ रही है सुबक सुबक कर
बहुत दिनों से नहीं मिले वो छोर
जहाँ दोनों मिलते थे
आधे ठन्डे, आधे गर्म फर्श पर
कुछ लम्हे खिलते थे
बहुत देर से देख रही थी हवा
धूप के नैना गीले
उड़ा ले गयी एक झोंके में
सारे बिखरे पत्ते पीले
पत्तों की चादर हटते ही
छाँव धूप से मिलने आई
नम आँखे जब धूप की देखी
उसकी आँखे नम हो आयीं

Wednesday, May 5, 2010

तारो की रौशनी में

कभी कभी तनाव से ऊब कर
नींद जब पल्लू छुड़ा कर भागती है
तो मै रोकती नहीं उसका रास्ता
ये सोच कर की शायद
कहीं कोई मखमली सपनो की सेज पर
करता होगा उसका इंतज़ार
और चुपचाप चुनने लगती हूँ
आसमान के सितारे
क्योंकि दिन के उजाले
कई बार आँखों को चौंधिया देते हैं
और साफ़ दिखती हुई चीज़ें भी
रह जाती हैं अनसुनी, अनदेखी
दिन की भीड़ और भीड़ का शोर
अक्सर दबा देता है
कुछ आवाज़ों को
जो कानो तक आकर भी
गुज़र जाती हैं बिना दस्तक दिए
फिर इन नन्हे तारों की
टिमटिमाती रौशनी में
खोजती हूँ उन आवाज़ों को
ढूँढती हूँ उनके जवाब
और तब वो रौशनी और ख़ामोशी
देती है जवाब
हर अनसुनी बात का
और मै हैरान रह जाती हूँ ये देखकर
तारो की रौशनी में
सबकुछ दिखता है कितना साफ़

Tuesday, May 4, 2010

ख़बरें

ख़बरों के चौराहों पर न जाने क्या क्या बिकता है
ये है वो चूल्हा जिस पर हर रोज़ तमाशा सिकता है
घर के झगडे, ढोंगी नेता या हो धर्म के ठेकेदार
जितने मिर्च मसाला उतना ही चलता इनका व्यापार

सपने

चटक, चुलबुले, चमकीले से
हरे गुलाबी और पीले से
रोज़ सजाती हूँ मै सपने
ओस की बूंदों से गीले से
पर...
आग उगलता सच का सूरज
सपनो को पिघला देता है
सब सपनों सा सरल नहीं है
इस सच को दिखला देता है

Saturday, May 1, 2010

अश्कों से धुले लम्हों को पोंछती रहती हूँ
कैसे जियूं ये रिश्ते बस सोचती रहती हूँ
फुरसत में कही कोई गम याद न आ जाये
मसरूफियत में खुशियों को खोजती रहती हूँ
आज कर दी हद जो वो आये नहीं
उनके ये तेवर हमें भाये नहीं
मेरे आंसू देख कर शरमा गए
बादलों ने मेघ बरसाए नहीं